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देशनालब्धि की मर्यादा)
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विषयों के सेवन के प्रति गृद्धता की कमी एवं कषाय की उग्रता में कुछ कमी भी आ गई हो और उसके कारण वह दया दान-पूजा- अनुकंपा आदि कार्यों के करने में सलंग्न भी हो गया हो, लेकिन तत्त्व निर्णय संबंधी कार्यों में उद्यमवंत नहीं हो तो ऐसी कषाय की मंदता के परिणाम भी विशुद्धिलब्धि मानी जाने योग्य नहीं हैं ।
लेकिन वही कषायों की मंदता रूप विशुद्धिलब्धि प्राप्त क्षयोपशम, जब तत्त्वविचार के लिये उद्यमवंत हुआ, तो वह विशुद्धिलब्धि संज्ञा को प्राप्त हो जाती है। वही विशुद्धतासहित होकर क्षयोपशम, जो तत्त्व विचार की ओर उद्यमवंत हुआ वही क्षयोपशम ज्ञान, जब तत्त्व विचार में संलग्न रहते हुए वस्तु के यथार्थ स्वरूप का विचार करते-करते निर्णय हुआ वह स्वरूप उसके धारणा ज्ञान में जम जावे और उसी निज आत्मतत्त्व को रुचिपूर्वक निर्णय करने में संलग्न रहते-रहते, परलक्ष्यी ज्ञान में भी, सिद्ध भगवान के जैसा अपने आत्मा के स्वरूप का निर्णय हो जावे, तब तक का सम्पूर्ण पुरुषार्थ ही देशनालब्धि है ।
संक्षेप में, विशुद्धलब्धि को प्राप्त क्षयोपशम जब तक तत्त्वविचार में उद्यमवंत रहता है, तब तक वह क्षयोपशमज्ञान विशुद्धिलब्धि वाला है और जब वही क्षयोपशमज्ञान तत्त्व विचार में संलग्न रहते हुए ही अपना आत्मस्वरूप त्रिकाली-अकर्ता-ज्ञायक भाव जो सिद्ध भगवान जैसा है उसमें अहंपना अर्थात् यह त्रिकाली ज्ञायक अकार्त भाव ही में हूँ ऐसा विश्वास
ऐसा अहंपना हो जावे। साथ ही हो रहे पर्यायगत अनेक प्रकार के भाव, जो मेरे ज्ञान में उत्पन्न होते हुए ज्ञात हो रहे हैं, वे सब अब तक मेरे को मेरे ही भाव लगते थे, लेकिन वे सब मेरे भाव नहीं हैं, ऐसा विश्वास में आ जावे तथा मैं तो एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक भाव हूँ और मेरी ज्ञान क्रिया, जिसमें ये भाव भी ज्ञात हो रहे हैं, वही, एकमात्र मेरा कार्य है ।
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