________________
२३२ )
(सुखी होने का उपाय भाग - ५
सीधा विषय बनाने के लिये पूर्व कृत निर्णय को प्रयोग में लाने का पुरुषार्थ करता है, और इस ही पुरुषार्थ की पराकाष्ठा व करणलब्धि है, जिस करणलब्धि के पुरुषार्थ को प्राप्त आत्मा का उपयोग इतना बलिष्ठ हो जाता है कि वह नियम से निर्विकल्प होकर आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन अर्थात् अनुभव कर ही लेता है अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ही लेता है, वापिस नहीं लौटता अर्थात् सम्यग्दर्शन होने के पूर्व अन्य ज्ञेयों की ओर झुकता ही नहीं है फलत: विकल्प खड़ा होने का अवकाश ही नहीं रहता और निर्विकल्प रहने से आत्मा के स्वाभाविक आनंद के साथ अत्यन्त तृप्त हो जाता है। लेकिन उपयोग के आत्मा में रुके रहने की निर्बलता के कारण अर्थात् चारित्र की निर्बलता के कारण उपयोग आत्मानन्द से वंचित होकर विकल्प की भूमिका में आ जाता है ।
लेकिन प्रायोग्यलब्धि में यह आत्मा स्वरूपलक्ष्यी होने की ओर अग्रसर होने पर भी सविकल्पदशा में रहते हुए ही, पूर्व में प्राप्त देशनालब्धि के निर्णय के विषय में ही उग्र रुचिपूर्वक आत्मा को प्राप्त करने के उद्देश्य से उपयोग को एकाग्र करने का पुरुषार्थ करता है, वही प्रायोग्यलब्धि का अस्ति की अपेक्षा से वास्तविक स्वरूप है । उन भावों के फलस्वरूप द्रव्य कर्मों की स्थिति अनुभाग भी क्षीण होते जाते हैं, उसके द्वारा नास्ति की मुख्यता से आत्मा के भावों के स्वरूप का ज्ञान कराया जाता है, उसका विस्तार से वर्णन लब्धिसार-क्षपणासार आदि ग्रंथों से जाना जा सकता है । संक्षेप से मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ २६१ से जान लेना । इतना अवश्य है कि देशनालब्धि के विकल्प परलक्ष्य की मुख्यता पूर्वक होते हैं अत: वे क्षीण नहीं होते, मात्र अशुभ के स्थान पर शुभरूप होते रहते हैं । लेकिन प्रायोग्यलब्धि में विकल्प स्वरूप लक्ष्यी रहने से, वे विकल्प उत्तरोतर क्षीण होते ज े फलतः आत्मदर्शन के काल में, वे समाप्त होकर आत्मा निर्विकल्प हो जाता है
S
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org