Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 190
________________ यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि योग्य रुचि की उत्पत्ति ) (१८९ दर्शाऊ एक विभक्त को, आत्मातने निज विभव से। दर्शाऊं तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने ॥ ५॥ इसके अतिरिक्त आचार्यश्री ने पंचास्तिकाय संग्रह की टीकापूर्ण करने के पूर्व गाथा १७२ की टीका में पूरे ग्रंथ का शास्त्र तात्पर्य एकमात्र “वीतरागता बताते हुए निम्नप्रकार कहा है । वह मूलत: पठनीय है यथा ___ “विस्तार से बस हो । जयवंत वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात्मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्रतात्पर्यभूत है। तात्पर्य द्विविध होता है - “सूत्र तात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । उसमें, सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रत्येक गाथा में प्रतिपादित किया गया है, और शास्त्र तात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है : __ “सर्व पुरुषार्थों में सारभूत ऐसे मोक्षतत्व का प्रतिपादन करने के हेतु से जिसमें पंचास्तिकाय और षद्रव्य के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तु का स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थों के विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बंध मोक्ष के संबंधी स्वामी, बंध-मोक्ष के आयतन स्थान और बंध-मोक्ष के विकल्प भेद प्रगट किए गए हैं, निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्ग का जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है तथा साक्षात् मोक्ष के कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस यथार्थ परमेश्वर शास्त्र का, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है।" उपरोक्त आगम प्रमाणों से स्पष्ट समझ में आता है कि समस्त जिनवाणी का तात्पर्य तो एकमात्र वीतरागता ही प्राप्त करना है। डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल ने अपनी देक्-शास्त्र-गुरु की पूजन की जयमाला में भी कहा है कि : For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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