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द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानें )
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तो स्वयं ही रागी है, वह मुझे वीतरागता कैसे देगी ? इसलिये मेरा प्रयोजन सिद्ध करने के लिये, मेरे ही द्वारा उत्पादित विकारी पर्याय को भी पर ही मानना पड़ेगा उसे अपनी माने रखने से वीतरागता का उत्पादन कैसे हो सकेगा? जैसे अपने अपने ही शरीर में उत्पादित रोग को ही अपना रक्षक मानते रहने से निरोगता कैसे हो सकेगी ? इसीप्रकार पर्याय स्वद्रव्य के द्वारा उत्पादित होते हुए भी विकारी होने से उससे एकत्व - ममत्व छोड़ने से ही मेरा वीरागतारूपी प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। ऐसा निर्णय करने से, अपनी पर्याय को भी पर मानते हुए, उससे ममत्व छोड़ना ही पड़ेगा। फलत: उसके प्रति उपेक्षा बुद्धि सहज ही उत्पन्न हो जावेगी । यही सच्चा मार्ग भगवान की दिव्य ध्वनि में आया है, अतः ऐसा निःशंक होकर स्वीकार करने पर ही आत्मा के कल्याण का मार्ग प्रारंभ होता है ।
संवर- निर्जरा व मोक्ष पर्याय तो निर्मल है,
इनको भी पर क्यों माना जावे ?
जिनवाणी में सभी कथन मुख्यरूप से अपेक्षाओं से ही होते हैं । एक कथन तो वस्तुस्वरूप को सिद्ध करने की अपेक्षा से होता है, दूसरा कथन आत्मा का वीतरागतारूपी प्रयोजन प्रगट करने की अपेक्षा से होता है । पहली अपेक्षा में तो प्रयोजन गौण रहता है और दूसरी में वस्तु स्वरूप गौण रहता है। लेकिन परस्पर एक दूसरे से विपरीत नहीं होते। पहली अपेक्षा में पर्याय का उत्पादक द्रव्य ही है तथा वह पर्याय शुद्ध अथवा अशुद्ध जैसी हो उसको वैसी ही आत्मा की बताना, यह मुख्य होता है दूसरी अपेक्षा में वस्तु स्वरूप को कायम मानते हुए भी, मेरी पर्याय की अशुद्धता का अभाव होकर वीतरागतारूपी शुद्धि कैसे प्रगट हो, उस प्रकार से वस्तुस्वरूप में से द्रव्य और पर्याय को भिन्न-भिन्न मानते हुए किसका
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