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द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानें )
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परिणमन उसको करता है इसलिए) उसके कर्तृत्व को स्वीकार करना चाहिए ( अर्थात् वो कर्ता है ऐसा स्वीकारना) वह भी तब तक कि जब तक भेद विज्ञान के प्रारम्भ से ज्ञान और ज्ञेय के भेद विज्ञान से ( अर्थात् भेद विज्ञान) सहित होने के कारण आत्मा को ही आत्मा का रूप जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षा से भी ज्ञानरूप ही ज्ञान परिणाम से परिणमित होता हुआ (ज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञान का परिणमन उस-रूप ही परिणमता हुआ) मात्र ज्ञातृत्व के कारण साक्षात् अकर्ता हो।"
इसी विषय का समर्थन समयसार के कलश संख्या १६४ में भी किया गया है :
“कर्म बंध को करने वाला कारण, न तो बहु कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है, न चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् मन-वचन-काय की क्रियारूप योग है ) न अनेक प्रकार के करण हैं और न चेतन-अचेतन का घात है। किन्तु “उपयोगभू” अर्थात् आत्मा रागादि के साथ जो ऐक्य को प्राप्त होता है वही एकमात्र ( मात्र रागादि के साथ एकतापना वह ही) वास्तव में पुरुषों के बंध कारण है।" ।
इसप्रकार ये सातों तत्त्वों संबंधी सभी संयोगी भावों का वास्तव में अर्थात् निश्चय से तो आत्मा ही उत्पन्न करने रूप अथवा अभाव करने रूप दोनों का, अकेला ही करने वाला है, द्रव्यकर्मों को तो निमित्त मात्र, इसलिये कह दिया जाता है कि उनकी भी पर्याय उस समय वैसे ही अनुभाग वाली व्यक्त होती है। द्रव्यकर्म की उस पर्याय का वास्तव में कर्ता वह पुद्गलकर्म ही है। मात्र दोनों में अनुकूलता एवं अनुरूपता सहज बन जाने जितना ही संबंध है। इसीलिये आत्मा के परलक्ष्यीज्ञान में, आत्मा के भावकर्म ज्ञेय बनने पर उसी समय होने वाले द्रव्यकर्म के उदय भी सहजरूप से ज्ञेय बन जाते हैं और आत्मा उन दोनों में एकत्व कर लेता है। इसी कारण उन भावों को संयोगी भाव कहा जाता है।
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