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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
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अनेकान्तात्मकत्व है । वहाँ अनेकान्त का ऐसा स्वरूप है कि, जो वस्तु तत् है वही अतत् है एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है- इसप्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। इसलिये अपनी आत्मवस्तु को भी, ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्त्व-अतत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, सत्व-असत्व और नित्यत्व-अनित्यत्वपना प्रकाशता ही है, क्योंकि उसके ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के अंतरंग में चकचकित प्रकाशते ज्ञानस्वरूप के द्वारा तत्पना है, और बाहर प्रगट होते, अनन्त ज्ञेयत्व को प्राप्त, स्वरूप से भिन्न ऐसे पर रूप के द्वारा (ज्ञानस्वरूप से भिन्न ऐसे परद्रव्य के रूप द्वारा) अतत्पना है (अर्थात् ज्ञान उस-रूप नहीं है,) सह भूत ( साथ ही ) प्रवर्तमान और क्रमश: प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य अंशों के समुदाय रूप अविभाग द्रव्य के द्वारा एकत्व है और अविभाग एक द्रव्य में व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमश: प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य-अंशरूप ( चैतन्य के अनन्त अंशोंरूप ) पर्यायों के द्वारा अनेकत्व है, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप से होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा ( अर्थात् ऐसे स्वभाववाली होने से) सत्व है, और पर के द्रव्य-क्षेत्र-काल-कालभावरूप न होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा असत्व है, अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूप से परिणतपने के द्वारा नित्यत्व है, और क्रमश: प्रवर्तमान, एक समय की मर्यादावाले अनेक वृत्ति अंशोरूप के परिणतपने द्वारा अनित्यत्व है। (इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तु को भी, तत्-अतत्पना इत्यादि दो-दो विरुद्ध शक्तियाँ स्वयंमेव प्रकाशित होती हैं, इसलिये अनेकान्त स्वयंमेव प्रकाशित होता है ।)”
इसप्रकार आत्मा एक गुणी है, उसमें अनन्त गुणों का अस्तित्व है तथा गुणी का भी अपना अस्तित्व है। लेकिन गुणी में गुणों की नास्ति
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