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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
प्रकाशक स्वभावी होते हुए भी अनादि से अज्ञानी आत्मा अपने उपयोग को परसन्मुख रखते हुए ही वर्त रहा है । अत: उसका ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होते हुए भी स्व संबंधी ज्ञान से वंचित चला आ रहा है। इसलिए उसका ज्ञान जब तक मन व इन्द्रियों का आलंबन छोड़कर एकबार स्व को उपयोगात्मक नहीं जान लेता, तब तक उसके ज्ञान को मोक्षमार्ग के प्रयोजन सिद्ध करने के लिए स्व-पर प्रकाशक नहीं माना जाता और न उसमें सम्यक्
अनेकान्त का जन्म ही हुआ है। उस ज्ञान को एकान्त पर प्रकाशक एवं मिथ्या ही कहा गया है। क्योंकि उसका ज्ञान तो अनादिकाल से परलक्ष्यी ही चला आ रहा है। अत: वह तो उपयोगात्मक अकेला पर को ही जानेगा
और उसका उपयोग भी परलक्ष्यी ही कार्य करता रहेगा, उसके ज्ञान में तो आत्मा आ ही कैसे सकेगा। इसी आशय को समयसार परिशिष्ट के पृष्ठ ५७३ पर निम्नप्रकार प्रगट किया है :
“स्वभाव से ही बहुत से भावों से भरे हुए इस विश्व में सर्वभावों का स्वभाव से अद्वैत होने पर भी, द्वैत का निषेध करना अशक्य होने से समस्त वस्तु स्वरूप में प्रवृत्ति और पररूप से व्यावृति के द्वारा दोनों भावों से अध्यासित है ( अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूप में प्रवर्तमान होने से और पररूप से भिन्न रहने से प्रत्येक वस्तु में दोनों भाव रह रहे हैं। ) वहाँ, जब यह ज्ञानमात्र भाव-आत्मा, शेष ( बाकी ) के भावों के साथ निज रस के भार से प्रवर्तित ज्ञाता-ज्ञेय के संबंध के कारण और अनादिकाल से ज्ञेयों के परिणमन के कारण ज्ञानतत्व को पररूप मानकर (अर्थात् ज्ञेयरूप से अंगीकार करके ) अज्ञानी होता हुआ नाश को प्राप्त होता है,तब ( उसे ज्ञानमात्र भाव का) स्व-रूप से (ज्ञानरूप ) से तत्पना प्रकाशित करके ( अर्थात् ज्ञान रूप से ही है ऐसा प्रगट करके ) ज्ञातारूप से परिणमन के कारण ज्ञानी करता हुआ अनेकान्त ही (स्याद्वाद ही ) उसका उद्धार करता है - नाश नहीं होने देता।
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