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कहते हैं ।
(२) आत्मा ज्ञेय पदार्थ के सन्मुख होकर अपने चैतन्य व्यापार को उस ओर जोड़े अर्थात् लगावें सो उपयोग है। उपयोग चैतन्य का परिणमन है । वह किसी अन्य ज्ञेय पदार्थ की ओर लग रहा हो तो, आत्मा की सुनने की शक्ति होने पर भी सुनता नहीं है । लब्धि और उपयोग दोनों के मिलने से ज्ञान की सिद्धि होती है।"
( सुखी होने का उपाय भाग - ५
इसी सूत्र के सिद्धान्त में भी स्पष्ट किया है – “जीव को छद्मस्थ दशा में ज्ञान का विकास अर्थात् क्षयोपशमहेतुक लब्धि बहुत कुछ हो तथापि उस सम्पूर्ण विकास का उपयोग एक साथ नहीं कर सकता, क्योंकि उसका उपयोग रागमिश्रित है इसलिये राग में अटक जाता है, इसलिये ज्ञान का लब्धिरूप विकास बहुत कुछ हो फिर भी व्यापार उपयोग अल्प ही होता है। ज्ञान गुण तो प्रत्येक जीव में परिपूर्ण है, विकारी दशा में उसकी ज्ञानगुण की पूर्ण पर्याय प्रगट नहीं होती, इतना ही नहीं किन्तु पर्याय में जितना विकास होता है उतना भी व्यापार एक साथ नहीं कर सकता । "
अनेकान्त स्वभावी ज्ञान का परिणमन, स्व- पर प्रकाशक होने के कारण, उसकी हर एक पर्याय भी स्व- पर प्रकाशक ही होती है। इतना अवश्य है कि सम्यग्ज्ञानी को स्व के उपयोगात्मक ज्ञान वर्तने के समय, पर सम्बन्धी ज्ञान लब्ध में रहता है और पर के उपयोगात्मक ज्ञान वर्तन के समय स्व का ज्ञान लब्ध में रह जाता है। लेकिन अज्ञानी का ज्ञान तो अनादिकाल से अकेला पर सन्मुख ही वर्तता रहा है। उसे लब्ध में स्व का ज्ञान है ही नही, अतः इसप्रकार ज्ञान के व्यापार की स्थिति है । इस प्रकार अनेकान्तात्मक ज्ञान के कार्य में ज्ञान का उपयोगात्मक परिणमन ही आत्मा के संसार मार्ग एवं मोक्षमार्ग को साधता है। इस उपयोग का स्व में प्रवर्तन मोक्षमार्ग का साधक होता है एवं पर में प्रवर्तन संसार
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