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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
इन्द्रियाँ एवं मन का विषय तो हमेशा जानने को बाकी बना ही रह जाता है। लेकिन इन्द्रियों के विषयों में सुख होगा, इसप्रकार की मान्यता से संतप्त रहने के कारण, अज्ञानी का ज्ञान उस इन्द्रिय को छोड़कर अन्य इन्द्रियों में सुख होगा, इसप्रकार की इच्छारूपी आकुलताओं से इन्द्रियों के विषयों को शीघ्र-शीघ्र बदलता हुआ अत्यन्त दुःखी होता रहता है। सुख की खोज में, ज्ञेयों में ही सुख को ढूंढ़ता रहता है। लेकिन सुख की खोज के लिये ज्ञान जिस ज्ञेय के सन्मुख हुआ था, पुण्य के योग से उस विषय की प्राप्ति हो जावे तो उस संबंधी आकुलता की किंचित कमी हो जाने से, ऐसा मानने लगता है कि इन्द्रिय से ही यह सुख प्राप्त हुआ है लेकिन ये इन्द्रियाँ तो जड़ पुद्गल द्रव्य हैं, ये तो सुख-दुःख का वेदन कर ही नहीं सकती। ज्ञान जो उस समय कार्यशील था, उसमें मात्र उक्त विषय की जानकारी हुई है लेकिन अपनी विपरीत मान्यता के कारण अज्ञानी जीव ऐसा नहीं मानकर, उन इन्द्रियों को ही उस शमनतारूपी सुख का कारण मानकर, उन इन्द्रियों को ही उस सुख का कारण मानकर, उनकी ही पुष्टि करने की चिंता एवं चेष्टा करता हुआ दुःखी और दुःखी ही बना रहता है।
उपरोक्त कथन का सारांश यह है कि इन्द्रियों के विषयों में सुख है, ऐसी मान्यता ही विपरीतता है। इस मान्यता के कारण ही ज्ञानोपयोग उन ज्ञेयों के सन्मुख बना रहकर सुख की खोज के लिये ज्ञेयों में ही भटकता रहता है और आकुलित रहता हुआ दुखी बना रहता है। वास्तव में तो यह सब ज्ञान के जानने की प्रक्रिया का ही विस्तार है। लेकिन अज्ञानी को ऐसा विश्वास ही नहीं है। अज्ञानी की इसप्रकार की विपरीत मान्यता सुख की खोज के लिये विपरीतता का प्रदर्शन ही है। जिस ज्ञान के उपयोग को अपने में सिमटने से, आत्मा का अनाकुलता रूपी सुख की प्राप्ति हो सकती थी, वह ही उपयोग विपरीत मान्यता के कारण,
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