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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
आकुलतारूपी दुःख की उत्पत्ति करने में लग रहा है। वास्तव में इसप्रकार ज्ञान का दुरुपयोग ही दुःख की उत्पत्ति का मूल कारण बन जाता है। इस विपरीत मान्यता का सिद्ध परमेष्ठी में अभाव हो जाने से, उनके ज्ञान का सदुपयोग होकर परम निराकुल आनन्द की अनुभूति में मग्न हो जाता
अनन्तवीर्य की विपरीतता अब चौथा चतुष्टय अनन्तवीर्य बाकी रहा। अत: उसको भी इसी प्रकार समझना है। यहाँ वीर्य का अर्थ शारीरिक शक्ति के बलाधार वीर्य की बात नहीं है। यहाँ तो आत्मा की निज शक्ति सामर्थ्य को वीर्य कहा है। यहाँ वीर्य से अर्थ है, आत्मा के ज्ञान का पूर्ण विकास रूपी कार्य करने की सामर्थ्य, आत्मवीर्य-आत्मशक्ति का द्योतक है। हमारे अनुभव में भी है कि हर एक आत्मा अपने संकल्पों की पूर्ति करने के लिये अपने अन्दर ही अन्दर विचारों में संलग्न रहते हुए अपनी आत्मशक्ति का दुरुपयोग करता रहता है। लेकिन उसके विपरीत सिद्ध परमात्मा अपने आत्मा की अनन्त शक्तियों की सामर्थ्य का उपयोग, आनन्द की अनुभूति में निरन्तर गर्क रहने के लिए करते रहते हैं। आत्मा में ज्ञान भी एक शक्ति हैऔर ज्ञेय भी लोकालोक के सभी पदार्थ हैं । ज्ञेयों का स्वरूप अनेकांतात्मक होने से ज्ञान में ये ज्ञात होते हुए भी उनकी ज्ञान में नास्ति है और ज्ञेयो में ज्ञान की नास्ति है। इसप्रकार समस्त ज्ञेयों को जानते रहकर भी सिद्ध भगवान किंचित मात्र भी आकुलित नहीं होते हुए , अपनी आनन्द की अनुभूति में गर्क बने रहने में महान सामर्थ्यरूप अनंतवीर्य का उपयोग करते रहते हैं। जानने के लिए कुछ भी बाकी रहा नहीं अत: नहीं जाने हुए को जानने की इच्छा का भी अवकाश रहा नहीं एवं अनेकांतात्मक वस्तु स्वभाव द्वारा हर एक द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों में स्वतंत्रतापूर्वक परिणमन करता हुआ भी, किसी अन्य से कोई संबंध रखता नहीं, ऐसा
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