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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
करने को संसारी जीव सुख मानता है तो जिसको आकुलता ही उत्पन्न नहीं हो, वह जीव कितना सुखी होगा, इस अनुमान से ही स्पष्ट है कि वही सुख की पराकाष्ठा है और वही अनन्त सुख है; जिसके भोक्ता सिद्ध भगवान बने रहते हैं ।
इस ही विषय को अन्य दृष्टि से भी विचार करें तो समझ में आवेगा कि संसारी प्राणी इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति को ही सुख मानता है । इसकी ऐसी विपरीत मान्यता कैसे है, इस पर भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि इसका मूल कारण भी तो सुख की खोज ही है । अनादिकाल से इस जीव ने आत्मा का यथार्थ स्वरूप तो समझा नहीं, मेरा सुख अनाकुल शांति है, वह मेरे में ही है, अतः मुझे मेरा सुख खोजने के लिये बाहर झांकना भी निरर्थक है । अगर बाहर की ओर भटकना समाप्त कर अपने आप में ही विश्राम करने लगे तो वहाँ तो द्वैत का अर्थात् दो पने का ही अभाव होने से, आकुलता का उत्पादन ही कैसे हो सकेगा ? अतः आत्मा अनाकुलतारूपी सुख का भोक्ता बना रह सकता है। ज्ञान के बाहर भटकने से, बाहर तो अनेकता ही अनेकताऐं हैं, उनमें जानने की इच्छा रहने से तो ज्ञान - ज्ञेयों को बदलता ही रहेगा, फिर आकुलता का अभाव कैसे होगा ? इस प्रकार की यथार्थ समझ कभी जागृत नहीं हुई, फलत: विपरीत मान्यता के कारण सुख की प्राप्ति के लिये अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य जो भी ज्ञेय इसके ज्ञान में ज्ञात होते हैं, ज्ञान उनकी ओर ही सुख की खोज के लिये दौड़ता है ।
ज्ञान जब परसन्मुख होकर दौड़ने की कोशिश करता है तो मकान के दरवाजों के समान, ज्ञान को बाहर निकलने में इन्द्रियाँ इसके बीच में पड़ती हैं। लेकिन इसका ज्ञान क्षायोपशमिक होने से पाँच में से मात्र एक इन्द्रिय के माध्यम से ही एक समय बाहर निकल पाता है बाकी की चारों
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