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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
आत्मार्थी भी छह द्रव्यों एवं जीव के रागादिभावों के बीच, आत्मा नहीं दिखने पर भी, सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा अन्वेषण कर जिनवाणी रूपी रिपोर्ट पर विश्वास करके, उन छह द्रव्यों एवं अशुद्ध विकारी भावों के बीच ही छुपी हुई आत्मा के अस्तित्व का निःशंकतापूर्वक विश्वास कर लेता है ।
मात्र यह विश्वास ही स्वर्ण प्राप्त कराने का मुख्य आधार है। उस मिट्टी में निश्चित रूप से स्वर्ण है ही, ऐसी जब तक निःशंक दृढ श्रद्धा नहीं होगी तब तक वह स्वर्ण प्राप्त नहीं कर सकेगा । उसीप्रकार इन रागादिभावों सहित दिखने वाले मेरे आत्मा में ही, यथार्थ शुद्ध आत्मा विद्यमान है, ऐसी नि:शंक दृढ़ श्रद्धा-विश्वास उत्पन्न नहीं होगा, तबतक उसको आत्मलाभ करने का पुरुषार्थ ही जाग्रत नहीं हो सकेगा 1
इसलिये समझने का मुख्य उद्देश्य तो वर्तमान अपने आत्मा में ही आत्मा के अस्तित्व का विश्वास होना चाहिए, उसके बिना आत्मलाभ असम्भव है । ऐसी श्रद्धा उत्पन्न करने का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण लाभ यह होगा, कि अपने आत्मस्वभाव को खोजने के लिये उसकी बुद्धि सब ओर से सिमटकर मात्र एक अपने आत्मद्रव्य में ही सीमित हो जावेगी । अपने यथार्थ स्वभाव को खोजने के लिए जो बुद्धि आत्मा से इतर भिन्न पदार्थों जैसे स्त्री, पुत्र, मकान जायदाद आदि एवं अपने शरीरादि समस्त विश्व में ढूँढता फिरता था, उसकी वह सारी भटकन समाप्त होकर, मात्र एक अपने आत्मद्रव्य में ही सीमित हो जाती है । अतः खोजने का क्षेत्र जो असीमित था, वह सब ओर से अत्यन्त सिमटकर मात्र एक अपने आत्मद्रव्य में ही सीमित हो जाता है। जिसप्रकार स्वर्ण को खोजने के शोधार्थी का, पूरे भारत भर के सभी क्षेत्रों से स्वर्ण खोजने का प्रयास समाप्त होकर, मात्र उस एक ही खान की मिट्टी तक सीमित हो जाता है उसीप्रकार आत्मखोजी को भी अनन्त भटकन समाप्त होकर, मात्र एक स्वआत्मद्रव्य में ही खोजने का क्षेत्र सीमित हो जाता है ।
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