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ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद - विज्ञान )
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का स्वरूप एवं उनकी उपलब्धि के कारणों की ओर भी पर्याप्त संकेत है
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“ इनमें प्रथम के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि में अनन्त अनुजीवी गुणों का एवं शेष के अमूर्तत्व, अस्तित्व, सप्रेदशत्व आदि अनन्त प्रतिजीवी गुणों की पूर्णता एवं शुद्धता बतलाकर, सिद्ध भगवान की आत्मा के द्रव्य एवं पर्यायों का पूर्ण विकास होकर, जो स्वरूप प्रगट हुआ, उसका स्पष्ट रूप से दिग्दर्शन कराया है। साथ ही उन उपलब्धियों का श्रेय उनकी आत्मा के उपयोग को सर्वथा सम्पूर्ण रूप से अन्तर्मुखाकार होना बताया है अर्थात् जो उपयोग पूर्व में परसन्मुख वर्तता था, उसको ही सम्पूर्ण रूप से आत्मसन्मुख करके, स्वात्माश्रित परमशुक्लध्यान शुद्धोपयोग के बल से, समस्त भावकर्मरूप अशुद्धि एवं अपूर्णताओं का अभाव हो जाने से उनकी आत्मा में बसे हुए अनन्त गुणों का शुद्ध एवं पूर्ण होना बतलाया है ।"
आत्मा के अनन्त भावों में भी जिनवाणी में, जीवतत्त्व के साथ संबंध रखने वाले अनन्त अनुजीवी गुणों में से भी मात्र ४ गुण दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य की शुद्धता को ही मुख्य रूप से लिया है, भगवान सिद्ध के अनन्त चतुष्टयों में भी १ अनंतज्ञान, २ अनंतदर्शन, ३ अनन्तवीर्य, ४ अनन्त- सुख इसप्रकार इन चारों को ही भगवानसिद्ध की अनुभूति का परिचय कराने के लिये मुख्य लिया है। अतः हमको भी भगवान सिद्ध की आत्मा का स्वरूप समझने के लिए उपरोक्त चारों गुणों की पर्यायों के सम्पूर्ण विकास के स्वरूप को मुख्य रूप से समझना होगा ।
भगवान सिद्ध के उपरोक्त गुणों के पूर्ण विकास का स्वरूप समझने के लिए, आत्मार्थी की कठिनता यह है कि सिद्ध भगवान की आत्मा तो हमारे ज्ञान में प्रत्यक्ष हो नहीं सकती, तब उनका स्वरूप समझने के लिए आगम, युक्ति, अनुमान गुरू उपदेश एवं स्वानुभूति ही एकमात्र आधार
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