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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
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भटकन समाप्त करने का श्रेय मात्र जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा
उपरोक्त महान उपलब्धि का श्रेय, एकमात्र मिट्टी के अनुसंधानकर्ता उस विशेषज्ञ के निर्णय को है, जिसने भारतभर की अन्य सभी मिट्टियों के अनुसंधान करने के निरर्थक प्रयासों को समाप्त कर , मात्र उस अकेली खान की मिट्टी में ही स्वर्ण होने का निर्णय दे दिया। ठीक उसीप्रकार सभी विश्व अर्थात् छह द्रव्यों के अनंतानंत पदार्थों में दिव्यकर्मों और अपने रागादि भावों में, आत्मार्थी की आत्मस्वभाव को खोजने की भटकन को समाप्त कर एकमात्र अपने ही आत्मद्रव्य में सीमित कर देने का कार्य कर दिया। इस महान् उपलब्धि का श्रेय, मात्र एक सर्वज्ञोपज्ञ द्रव्यश्रुत - जिनवाणी को ही है । तथा उसके मर्म समझने वाले यथार्थ आत्मानुभवी सत्पुरुषों को है, जिन्होंने जीवनभर अपने ज्ञान उपयोग को जिनवाणी के सतत् अध्ययन एवं अनुसंधान में लगाकर, आत्मोपलब्धि प्राप्तकर अपने अनुभव के आधार पर यह निर्णयकर घोषित कर दिया कि “तेरा आत्म स्वभाव तो तेरे पास ही है, तेरा आत्मद्रव्य ही है।" तेरा आत्मा तेरे आत्मद्रव्य के अतिरिक्त अन्य जीवद्रव्यों में तथा तेरे ही अंदर उत्पन्न होने वाले विकारी भावों में तथा इन सबके अतिरिक्त अन्य अचेतन द्रव्यों में, जैसे तेरे से अन्य स्त्री, पुत्र, माता-पिता, परिजन आदि तथा मकान रुपया पैसा आदि तथा शरीरादि द्रव्यकर्मादि सभी अन्य द्रव्यों में हो ही नहीं सकता, इसलिए मुझे अपने आत्मस्वभाव को खोजने के लिए उनकी ओर झांकने की भी आवश्यकता नहीं है। “पं. दीपचंद जी शाह ने ज्ञानदर्पण के कवित्त ९ में कहा भी है कि :
"चेतन को अंक एक सदा निकलंक महा, करम कलंक जामैं कोऊँ नहीं पाइए। निराकार रूप जो अनूप उपयोग जाके, ज्ञेय लखै ज्ञेयाकार न्यारौ हूँ बताइये ।।
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