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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
(१३७ अत: इस भेदविज्ञान की वास्तविक पद्धति को समझना ही वास्तव में आत्मोपलब्धि का एकमात्र वास्तविक उपाय है।
भेदविज्ञान भेदविज्ञान शब्द ही यह स्पष्ट करता है कि “एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ मिश्रित हों, उनमें से प्रयोजनभूत पदार्थ कौन हैं ? उसे उपादेयरूप पहिचानना, अन्य बचे हुए सभी पदार्थों को हेय रूप पहिचानना।" जैसे नींबू, मौसमी, आदि में, उसमें भरे हुए रस को प्रयोजनभूत एवं उपादेय तथा छिलके आदि सभी को अप्रयोजनभूत एवं हेयरूप पहिचानना। इसीप्रकार गेहूँ आदि धान्यादि पदार्थों में एकमात्र गेहूं को उपादेयरूप प्रयोजनभूत एवं अन्य सभी मिलावटी पदार्थों को हेयरूप अप्रयोजनभूत जानकर छटाई करना, जैसे स्वर्ण मिश्रित खान की मिट्टी में , मात्र १०० टंच के शुद्ध स्वर्ण को उपादेयरूप प्रयोजनभूत समझना एवं अन्य सभी मिश्रित पदार्थों को हेयरूप अप्रयोजनभूत पहिचानना। इस प्रकार पहिचान करने का नाम ही भेदविज्ञान है।
इस प्रकरण में हमें भेदविज्ञान करने का विषय तो एक मात्र हमारा निज आत्मद्रव्य ही है। उस ही का अनुसंधान करके उसमें से शुद्ध
आत्मतत्त्व को खोजना है - पहचानकर अनुभव करना है। जिसप्रकार स्वर्ण की खान से निकली हुई मिट्टी में, कहीं भी स्वर्ण नहीं दिख रहा है। फिर भी अनुसंधानकर्ता विशेषज्ञ, उस मिट्टी में असली १०० टंच के स्वर्ण को, अपनी अनुसंधान प्रक्रिया के द्वारा शुद्ध करके निकालकर प्रत्यक्ष कर लेता है। उसके आधार पर ही वह यह निर्णय कर लेता है कि इस ५ किलो मिट्टी में शुद्ध स्वर्ण, मात्र १०० ग्राम है, बाकी सब अन्य अप्रयोजनभूत मिश्रण है। विशेषज्ञ के उस निर्णय के आधार पर ही, उस स्वर्ण की खान का मूल्याकंन कर लिया जाता है। इसीप्रकार हमारी वर्तमान आत्मा तो रागीद्वेषी अत्यन्त मलिन ही दिखाई दे रही है अर्थात्
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