________________
१२०)
(सुखी होने का उपाय भाग - ५
जैसे जल का, अग्नि जिसका निमित्त है ऐसी उष्णता के साथ संयुक्ततारूप तप्ततारूप-अवस्था से अनुभव करने पर जल का उष्णतारूप संयुक्तता भूतार्थ है- सत्यार्थ है, तथापि एकांत शीतलता रूप जलस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर उष्णता के साथ संयुक्तता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है। इसीप्रकार आत्मा का, कर्म जिसका निमित्त है ऐसे मोह के साथ संयुक्ततारूप अवस्था से अनुभव करने पर संयुक्तता भूतार्थ है-सत्यार्थ है। इसीप्रकार आत्मा का, कर्म जिसका निमित्त है ऐसे मोह के साथ संयुक्ततारूप अवस्था से अनुभव करने पर संयुक्तता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि जो स्वयं एकांत बोधबीज रूप स्वभाव है उसके चैतन्यभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर संयुक्तता अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है।”
इसप्रकार उपर्युक्त सभी आगम प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारे प्रयोजन सिद्धि में साधक होने की अपेक्षा ही निश्चयनय को भूतार्थ सत्यार्थ कहा है एवं प्रयोजन सिद्धि में साधक नहीं होने के कारण ही व्यवहारनय एवं उसके विषयभूत पदार्थों को उपेक्षित करने योग्य मानकर अभूतार्थ एवं असत्यार्थ कहा है। व्यवहारनय के विषय को असत् बताना इसका अभिप्राय नहीं है । व्यवहारनय के विषयों की सत्ता होते हुए भी एवं मेरे ज्ञान की जानकारी में ज्ञात होते हुए भी, वे मेरे लिये प्रयोजनभूत नहीं होने से अभूतार्थ कहे गये हैं।
व्यवहारनय, अभूतार्थ ही है तो उसका उपदेश क्यों ?
सहज ही प्रश्न होता है कि व्यवहारनय जब अभूतार्थ-अप्रयोजनभूत है तो मोक्षमार्ग में उसका उपदेश ही क्यों किया गया है ?
उत्तर :- जिनवाणी में व्यवहारनय को स्थान तो इसलिये प्राप्त हुआ है कि वह किन्ही-किन्हीं को और कभी-कभी जाना हुआ प्रयोजनवान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org