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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
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होता है और अभूतार्थ इसलिये कहा गया है कि उसके आश्रय से मुक्ति प्राप्ति नहीं होती। ऐसा ही समयसार की गाथा १२ में कहा है -
“अर्थ :- जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान चारित्रवान् हो गये, उन्हें तो शुद्ध (आत्मा) का उपदेश ( आज्ञा ) करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरमभाव में अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञान चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहँच सके हैं, साधक अवस्था में ही स्थित हैं, वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।"
इसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५१ पर कहा है :
___ “फिर प्रश्न है कि यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिनमार्ग में किसलिये दिया? एक निश्चयनय ही का निरूपण करना था।
समाधान :- ऐसा ही तर्क समयसार में किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है :
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभांस विणा उ गाहेडं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ ८ ॥
अर्थ :- जिसप्रकार अनार्य अर्थात् म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है; उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है इसलिये व्यवहार का उपदेश है। ___ तथा इसी सूत्र की व्याख्या में ऐसा कहा है कि "व्यवहारनयों ना नुसतव्य"
इसका अर्थ है :- इस निश्चय को अंगीकार करने के लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं, परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है।
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