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पात्रता )
पात्रता
“मैं आत्मा ज्ञानस्वभावी हूँ” ऐसा निःशंक निर्णय करने के लिए प्रयत्नशील आत्मार्थी की पात्रता कैसी होती है, यह जानना अत्यन्त आवश्यक है। श्रीमद्राजचन्द्रजी का वाक्य है — “ पात्र बिना वस्तु न रहे,. पात्रे आत्मिक ज्ञान ।" इसप्रकार आत्मार्थी को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने योग्य पात्रता होना भी अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण कर्तव्य है ।
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पात्रता के चिन्ह बताये हैं- “कषाय की उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष, भवेखेद प्राणीदया वहाँ आत्मार्थ निवास" ऐसे पात्र जीव की जीवनचर्या कैसी हो जाती है, उसके लिए कहा है कि “काम एक आत्मार्थ का, अन्य नहीं मनरोग ।” आत्मार्थी का जीवन सहजरूप से इसप्रकार का हो जाता है।
सुखी होने के उपाय पुस्तक के चारों भागों को अध्ययन करने वाले आत्मार्थी की पात्रता तो इतनी उग्र हो जानी चाहिए कि आत्मार्थ पोषण के साधनों के अतिरिक्त, अन्य संयोगों से अंतरंग में उसे अत्यन्त विरक्ति वर्तनी चाहिए। सामान्य प्राणी का अगर थोड़ी देर भी उपयोग खाली रह जावे अर्थात् कोई आलंबन नहीं मिले तो वह आकुल-व्याकुल हो जाता है, कहने लगता है “मैं तो बोर हो गया हूँ” अतः कोई न कोई प्रकार के आलबंन को ढूँढ़ता है एवं जुटाता है। जैसे अवकाश के दिन अथवा थोड़ा सा समय मिलने पर, सिनेमा जाने का, दोस्तों के साथ बैठकर गप्पें लड़ाने का, पिकनिक मनाने का, टी.वी. देखने का तथा वी.सी. आर. के द्वारा अनेक फिल्में देखने में, घंटों बर्बाद करके, उपयोग को कहीं न कहीं फंसाता रहता है । उसको उपयोग का खाली होना भारभूत लगता है । अतः पाँचों इन्द्रियों में से किसी न किसी इन्द्रिय के विषय में उपयोग उलझाये रखने के लिए साधन जुटाने में व्यस्त रहता है।
इसके विपरीत, आत्मार्थी को तो उपयोग को बाहर के बाहर फंसाने
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