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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
भिन्न प्रदेशवाले द्रव्यों की भिन्नता समझने में सरलता लगती है और अभिन्न प्रदेशों वाले द्रव्य पदार्थों में, भिन्नता समझने के लिए बुद्धि को विशेष उग्र करना पड़ेगा।
इस संबंध में पं. दौलतराम जी ने छहढाला की छठवीं ढाल में कहा है कि -
'जिन परम पैनी सुबुद्धि छैनी डार अंतर भेदिया।
वरणादि अरू रागदि तें निजभाव को न्यारा किया।'
इसीप्रकार का भाव आचार्य श्री अमृतचंद देव ने समयसार के कलश १८१ में वर्णन किया है :
“यह प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छैनीप्रवीण पुरुषों के द्वारा किसी भी प्रकार से सावधानतया पटकने पर, आत्मा और कर्म-दोनों के सूक्ष्म अंतरंग संधि के बंध में शीघ्र पड़ती है। किसप्रकार पड़ती है ? वह आत्मा को तो जिसका तेज अंतरंग में स्थिर और निर्मलतया दैदीप्यमान है ऐसे
चैतन्यप्रवाह में मग्न करती हुई और बंध को अज्ञान भाव में निश्चित करती हुई - इसप्रकार आत्मा और बंध को सर्वत: भिन्न-भिन्न करती हुई पड़ती है।"
उपर्युक्त आगम वाक्यों से भी स्पष्ट है कि द्रव्य और पर्याय के प्रदेश अभिन्न होते हुए भी भेद समझना शक्य है लेकिन वह रुचि एवं बुद्धि को तीक्ष्ण करने से ही संभव हो सकता है।
नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता भिन्नता समझने के लिए नयज्ञान अत्यन्त आवश्यक है
अभिन्न वस्तु में भी भिन्नता समझना अर्थात् अभेद वस्तु को भी भेद करके समझने की प्रणाली का ही नाम “नयज्ञान" है। नयज्ञार कोई कठिन अथवा विद्वानों के जानने का ही विषय नहीं है, वरन् किसी भी
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