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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) व्यवहार कहकर असत्यार्थ कहा है।"
(प्रवचनरत्नाकर भाग-१ पृष्ठ १५७) इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि मुख्य गौण व्यवस्था में भी प्रयोजन की ही मुख्यता है और साधक जिसको मुख्य करता है, वही निश्चय है और जिसको गौण करता है वही व्यवहार कहा जाता है।
इसप्रकार यह महान् सिद्धान्त फलित होता है कि साधक जीव का प्रयोजन तो एक मात्र वीतरागता है। उसकी सिद्धि के लिए, वह जिस प्रकार से अपना प्रयोजन सिद्ध हो, उसीप्रकार मुख्य-गौण व्यवस्था पूर्वक नयों के प्रयोग द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करता है। इसलिए पूज्य श्री कानजीस्वामी द्वारा की गई यह परिभाषा बहुत महत्वपूर्ण है कि “मुख्य सो निश्चय, गौण सो व्यवहार।" इसके विपरीत यह नहीं कहा कि निश्चय सो मुख्य और व्यवहार वह गौण । क्योंकि दूसरे नंबर की परिभाषा में हमारा प्रयोजन वीतरागता, वह सिद्ध नहीं होता, वह तो आगम की परिभाषा है, आत्मा के समझने मात्र में कार्यकारी है। अध्यात्म में तो पहले नंबर वाली परिभाषा ही उपयोगी है, क्योंकि मुझे तो वीतरागता रूपी प्रयोजन सिद्ध करने के लिए जिसको मुख्य करना हो, वही मेरे लिए निश्चय अर्थात् उपादेय हो जाता है और जो प्रयोजन के लिए साधक तो नहीं है लेकिन फिर भी पर्याय में विद्यमान होने से ज्ञात तो होता ही है और उसकी उपेक्षा किये बिना, मेरा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, इसलिए उसको गौण करके व्यवहार मानकर हेय करना भी आवश्यक हो जाता है।
उसका प्रमाण यह है कि जिनवाणी में ऐसा कथन आता है कि “स्व वह निश्चय, पर वह व्यवहार" जैसे जब छहों द्रव्यों से भिन्न करके, अपने आत्मा को स्व मानना हो तो, अपना आत्मा शुद्धाशुद्ध पर्यायों सहित वह मुख्य हो जाने से निश्चय कहा जाता है और उसी समय अन्य छहों द्रव्य मेरे ज्ञान में ज्ञात होते हुए भी उनको गौण कर देने से ही मेरा प्रयोजन सिद्ध होता है अत: उनको गौण कर व्यवहार कहा जाता है। इसीप्रकार
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