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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
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चाहिए। तत्पश्चात् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय द्वारा गुण-पर्यायात्मक वस्तु के स्वरूप को समझकर उस ही वस्तु को हेय-उपादेय बुद्धिपूर्वक समझकर, त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवभाव के स्वरूप को समझना चाहिए। पश्चात् गुणभेद एवं पर्याय की स्थिति ज्ञान में ज्ञात होते हुए भी, उन समस्त व्यवहारनय के विषयों को गौण कर, निषेधकर, एक मात्र निश्चयनय की विषयभूत वस्तु में अपनी परिणति को अभेद करना, यही दोनों प्रकार के नयों के ज्ञान की सार्थकता है। ऐसा समझकर साधक जीव को अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार यथास्थान यथायोग्य उक्त नयों के प्रयोग द्वारा आत्मोपलब्धि प्राप्त कर लेनी चाहिए, यही मनुष्य जीवन की सार्थकता
नित्यानित्यात्मक आत्मवस्तु का स्वभाव प्रमाणज्ञान का विषय तो अभेद-अखंड पूरा आत्म पदार्थ होता है। देखो सुखी होने का उपाय भाग-४ पृष्ठ १६० से १७० तक । पदार्थ तो द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक हैं, उसमें से द्रव्य स्वभाव तो ध्रुवांश नित्य अपरिणामी उत्पाद-व्यय निरपेक्ष अकर्ता स्वभावी ज्ञायक तत्व, कारणपरमात्मा है। वह अनंत गुणों का समुदाय रूप, अभेद, अखण्ड पिंड है। अनंत प्रभुता संपन्न अखण्ड एक है। यह ही शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का और परमशुद्ध निश्चयनय का विषय है । वह एक ही परम आराध्य, ध्यान का ध्येय, शुद्ध ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय एवं साधक का साध्य है। इसही के आश्रय से एवं इसही में उपयोग एकाग्र होने से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है। कार्यपरमात्मा बनने का आधारभूत कारणपरमात्मा भी यह ही है। इसही के आश्रय से पर्याय में वर्तने वाली अशुद्धि अथवा अधूरेपन का अभाव होकर, पूर्ण निर्विकारी दशा प्राप्त होती है। इसलिये मात्र एक द्रव्य स्वभाव में ही एकत्व-ममत्व करने योग्य है। इसही के आश्रय से द्रव्य-भाव-संसार का अभाव होकर मुक्ति की प्राप्ति होगी।
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