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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
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उसके क्षण-क्षण के नाश में अपनी मृत्यु अर्थात् नाश जैसा अनुभव होने के कारण अत्यन्त अशांति एवं दुःख का कारण बनता है। अत: उसमें अपनापन एवं उपादेयता मानने योग्य नहीं है। प्रत्युत सदैव हेय मानते हुए प्रेम नहीं करने योग्य है। ऐसी श्रद्धा-सच्ची समझ उत्पन्न हो जाने से, पर्यायार्थिकनय एवं उसके विषयों के प्रति रुचि का अभाव होकर उपेक्षाबुद्धि-हेयबुद्धि प्रगट हो जाती है । ज्ञेयों में आसक्ति के कारण हमारी पर्याय आत्मस्वभाव से अत्यन्त विपरीत, राग द्वेष आदि विकारी रूप होकर परिणमन कर रही है, इसलिये किसी प्रकार भी किंचित मात्र भी प्रेम करने योग्य-अपनी मानने योग्य नहीं है। समयसार गाथा नं.७२ एवं ७४ से इस ही का समर्थन प्राप्त होता है। उसका हिंदी अनुवाद निम्नप्रकार है, मूल टीका पठनीय है :
अर्थ :- आस्रवों की रागद्वेषादि भावों की अशुचिता एवं विपरीतता तथा वे दुःख के कारण हैं, ऐसा जानकर जीव उनसे निवृत्ति करता है ॥७२॥
अर्थ:- यह आश्रव जीव के साथ निबद्ध है, अध्रुव है, अनित्य है तथा अशरण है, और वे दुःख रूप हैं, दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं। ॥ ७४॥
इसप्रकार अपनी पर्याय के यथार्थ स्वरूप एवं वर्तमान की भूल आदि की यथार्थ जानकारी प्राप्तकर, पर्याय के प्रति हेय बुद्धि प्रगट करनी चाहिये, तथा अपना स्वभाव ऐसे त्रिकाली ज्ञायक भाव की महिमा लाकर उसमें अत्यन्त उपादेय बुद्धि प्रगट करना चाहिये। इसके फलस्वरूप, पर एवं पर्याय के प्रति उपेक्षा बुद्धि जाग्रत होकर, आत्मा की अनुभूति प्रगट हो सकेगी। इस ही अपेक्षा से जिनवाणी में, निश्चयनय को भूतार्थ सत्यार्थ आदि कहा गया है एवं व्यवहार नय को अभूतार्थ-असत्यार्थ आदि अनेक नामों से संबोधन किया है। क्योंकि वे नय जिसको अपना विषय बनाते
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