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(सुखी होने का उपाय भाग - ५ निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलंबन के बल से सर्वथा अपने से अलग किया, सो वह द्रव्येन्द्रियों को जीतना हुआ। भिन्न-भिन्न अपने-अपने विषयों में व्यापार भाव से जो विषयों को खण्ड-खण्ड ग्रहण करती है ज्ञान को खंडखंडरूप बतलाती है ऐसी भावेन्द्रियों को, प्रतीति में आती हुई अखण्ड एक चैतन्य शक्ति के द्वारा सर्वथा अपने से भिन्न जाना सो यह भावेन्द्रियों को जीतना हुआ। ग्राह्यग्राहक लक्षणवाले संबंध की निकटता के कारण जो अपने संवेदन अनुभव के साथ परस्पर एक जैसी हुई दिखाई देती हैं, ऐसी भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुए, इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्शादि पदार्थों को, अपनी चैतन्यशक्ति को स्वयमेव अनुभव में आने वाली असंगता के द्वारा सर्वथा अपने से अलग किया, सो यह इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को तीनों को जीतकर ज्ञेयज्ञायक संकर नाम दोष
आता था सो सब दूर होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभाव के द्वारा सर्व अन्य द्रव्यों से परमार्थ से भिन्न ऐसे अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे निश्चय से जितेन्द्रिय जिन हैं । ज्ञानस्वभाव अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है इसलिये उसके द्वारा आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है। कैसा है वह ज्ञानस्वभाव? विश्व के समस्त पदार्थों के ऊपर तिरता हुआ उन्हें जानता हुआ भी उनरूप न होता हुआ प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत: सिद्ध और परमार्थरूप ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है।"
__पर्यायार्थिकनय एवं उसके विषयभूत समस्त ज्ञेयपदार्थ अनित्यस्वभावी-उत्पाद-व्ययस्वभावी अपनी ही पर्याय है। पर्याय भी सत् का अंश होने से सत् तो अवश्य है, लेकिन एक समय मात्र का सत् है इसलिये अनित्य स्वभावी है। अनित्य स्वभावी एवं क्षण-क्षण में बदल जाने के स्वभाव वाली होने से, आश्रय करने योग्य नहीं है । उसको मेरा मानने से
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