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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
इसी प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार गाथा ५ की टीका में कहा है, उसमें भावार्थ निम्नप्रकार है -
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# आचार्य आगम का सेवन, युक्ति का अवलंबन, पर और अपर गुरु का उपदेश और स्वसंवेदन यों चार प्रकार से उत्पन्न हुए अपने ज्ञान के वैभव से एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप दिखाते हैं । "
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उपर्युक्त आगम वाक्यों से स्पष्ट है कि आगम के कथन को सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित तथा परम्परा से आचार्यों द्वारा द्रव्यश्रुत के रूप में गुंथित मानकर उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते हुए, आस्थापूर्वक अभ्यास करके एवं उसके कथन को युक्ति के माध्यम से समझकर, तदनुसार अनुमान में लाकर, समझने का प्रयास करें तो, अव्यक्त एवं अपरिचित आत्मा का स्वरूप भी स्पष्टतया समझ में आ जाता है। तत्पश्चात् अपनी रुचि को पर पदार्थों से हटाकर आत्मसन्मुख करके, उपयोग उसमें एकाग्र हो तो वह आत्मा स्वयं को अनुभव में आ जाता है अर्थात् स्वानुभव प्रत्यक्ष हो जाता है । " निर्णय का विषय क्या है?" इसकी जानकारी लेखक की सुखी होने का उपाय भाग-२ के पृष्ठ २८ से ३४ के द्वारा ज्ञात करें ।
उपर्युक्त प्रकार के द्रव्य का स्वभाव एवं पर्याय का स्वभाव जानकर एवं समझकर, शांति प्राप्त करने के लिये, किसका आश्रय करना, किसके आश्रय करने से मुझे शांति प्राप्ति होगी, यह निर्णय करना आत्मार्थी का परम कर्तव्य है । पर्याय जो स्वयं अनित्य स्वभावी है, जिसका जीवनकाल ही मात्र एक समय का है, जो प्रत्येक समय जीवन और मरण को भोग रही है, जिसमें अनेकताओं की भरमार है, उसका आश्रय करने से मुझे शांति कैसे प्राप्त हो सकेगी ? यह अत्यन्त विचारणीय प्रश्न है। उस अनित्य पर्याय का आश्रय करने से अर्थात् उसमें अपनापन मानने से तो मुझे प्रत्येक क्षण जीवन-मरण का दुःख भोगना पड़ेगा आदि-आदि विचारों
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