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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
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अभेद स्वाद आने पर भी, सबका भिन्न-भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व तो मानना ही पड़ेगा। जब अभेदरूप में भी सबकी सत्ता भिन्न-भिन्न है तो उनका उत्पाद-व्यय भी उसीप्रकार होना अवश्यंभावी है। जब स्वतंत्र अभेद उत्पाद-व्यय है तो हर समय भिन्न-भिन्न स्वाद का आना भी अवश्यंभावी
ऐसी विकट एवं कठिन परिस्थिति में ज्ञान, स्व और पर का भेद कैसे करे? यह एक जटिल समस्या है। अज्ञानी को तो हर समय आत्मा विकारी ही ज्ञान में ज्ञात हो रहा है, इसलिये वह उस ही आत्मा को स्व के रूप में मानता चला आ रहा है। जिनवाणी में जो आत्मा का स्वरूप बताया गया है उसका तो इसको कभी परिचय भी हुआ नहीं। ऐसे अपरिचित अव्यक्त आत्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकेगा व समझा जा सकेगा? उपरोक्त स्थिति आत्मार्थी को बहुत कठिन एवं जटिल लगती है। बिना जाने स्व और पर का भेद कैसे किया जा सकेगा?
उपर्युक्त जटिल समस्या का समाधान जिनवाणी में विशद रूप से बताया गया है, उसके द्वारा आत्मस्वभाव को स्पष्ट समझा जा सकता है। पंडित टोडरमल जी ने मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५८ पर निम्नप्रकार बताया
“वहाँ नाम सीख लेना और लक्षण जान लेना यह दोनों तो उपदेश के अनुसार होते हैं जैसा उपदेश दिया है वैसा याद कर लेना तथा परीक्षा करने में अपना विवेक चाहिए, सो विवेकपूर्वक एकान्त में अपने उपयोग में विचार करे कि जैसा उपदेश दिया वैसे ही हैं या अन्यथा हैं? वहाँ अनुमानादि आगम, अनुमान एवं युक्ति आदि प्रमाण से बराबर समझे अथवा उपदेश तो ऐसा है, और ऐसा न मानें तो ऐसा होगा, सो इनमें प्रबल युक्ति कौन है और निर्बल युक्ति कौन है? जो प्रबल भासित हो उसको सत्य जाने।"
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