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(सुखी होने का उपाय भाग - ५ के लिए व्यवहार का निषेध आवश्यक है। यदि व्यवहार का प्रयोग नहीं करेंगे तो वस्तु हमारी समझ में नहीं आवेगी, यदि व्यवहार का निषेध नहीं करेंगे तो वस्तु प्राप्त नहीं होगी।
उपरोक्त प्रकार निश्चय, व्यवहार का निषेधक है यह बात दृढता के साथ स्पष्ट करने के पश्चात् उक्त पुस्तक के पृष्ठ ६१ में दोनों नयों में निषेध्य-निषेधक भाव होते हुए भी इसके उपयोग में साधक को सावधानी बरतने के लिये निम्न शब्दों में सावधान किया है :
“हाँ, यह बात अवश्य है कि व्यवहार का निषेध व्यवहारातीत होने के लिए परिपक्वावस्था में ही होता है, इससे पहले नहीं। यदि पहले करने जावेंगे तो न इधर के रहेंगे न उधर के। परिपक्वावस्था माने वृद्धावस्था नहीं, अपितु व्यवहार द्वारा परिपूर्ण प्रतिपादन होने के बाद, निश्चय की प्राप्ति होना-लेना चाहिए।
. जैसे नाव में बैठे बिना नदी पार होंगे नहीं और नाव में बैठे-बैठे नदी पार होंगे नहीं। नाव में नहीं बैठेंगे तो रहेंगे इस पार और नाव में बैठे रहेंगे तो रहेंगे मझधार । नदी पार करने के लिए नाव में बैठना भी होगा और नाव को छोड़ना भी होगा; अर्थात् नाव में से उतरना भी होगा।
उसी प्रकार व्यवहार के बिना निश्चय समझा नहीं जा सकता और व्यवहार को छोड़े बिना निश्चय पाया नहीं जा सकता। निश्चय को समझने के लिए व्यवहार को अपनाना होगा और निश्चय को पाने के लिए व्यवहार को छोड़ना भी होगा।"
- परमभाव प्रकाशक नयचक्र इसप्रकार द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय के एवं निश्चय-व्यवहारनय के उद्देश्य को समझकर, दोनों की उपयोगिता को भी अंतर में समझना
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