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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) यथायोग्य, नय के प्रयोग द्वारा, मुख्य-गौण व्यवस्था को अपनाते हुए, अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेना चाहिए, नयज्ञान जानने की इसी में सार्थकता
है।
द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय का प्रयोजन उपर्युक्त नयज्ञान के भेदों के अर्न्तगत हम दोनों प्रकार के नयों की उपर्युक्त परिभाषाएँ समझ चुके हैं। तदनुसार, द्रव्यार्थिकनय का प्रयोजन तो द्रव्यांश को जानना है और पर्यायार्थिकनय का प्रयोजन पर्यायांश एवं उसके निमित्त आदि को जानना है। तात्पर्य यह है कि छद्मस्थ जीव को प्रमाणज्ञान तो होता नहीं, उसके अभाव में जब गुण-पर्याय युक्त, उत्पाद-व्यय-ध्रुवात्मक, संपूर्ण सत् पदार्थ को जानना हो तो उपर्युक्त दोनों नयों के क्रमश: प्रयोग द्वारा ही जाना जा सकता है। समग्र पदार्थ को जानने का अन्य कोई उपाय नहीं है। जब पदार्थ के, द्रव्यांश-त्रिकाली ज्ञायक भाव को, जानने के लिये उसको मुख्य विषय बनाया जावे उस समय द्रव्यार्थिक नय का प्रयोग ही कार्यकारी होगा। उसके द्वारा नित्य भाव-त्रिकालीभाव की ही पूर्ण जानकारी प्राप्त होगी। उस समय पर्यायार्थिक नय के संपूर्ण विषय को अत्यंत गौण अर्थात् नहींवत् गौण करके ही त्रिकाली भाव को समझा जा सकता है।
इसीप्रकार जब पर्यायार्थिकनय के विषय का ज्ञान करना हो अथवा समझना हो, तब वह मुख्य होगा, उसको जानने-समझने के लिये पर्यायार्थिकनय ही कार्यकारी होगा। उसके द्वारा पर्याय अर्थात् अनित्य भाव, उत्पादव्ययअंश एवं पर्याय से संबंधित समस्त परिकर उस नय का विषय बनेगा, उसकी जानकारी प्राप्त होगी। लेकिन उस समय द्रव्यार्थिकनय के विषय को अत्यन्त गौण-नहींवत् करके ही वस्तु समझी जा सकती है।
इस संबंध में प्रवचनसार गाथा ११४ की टीका से समर्थन प्राप्त होता है।
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