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विषय परिचय )
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समाधान :- प्रवचनसार का विषय तो ज्ञान से ज्ञेय को विभागीकरण कराने का है । जीव और पुद्गल वास्तव में दो द्रव्य हैं, वे स्वतंत्रता से अपनी-अपनी पर्यायों को कर रहे हैं। उन दोनों के एक क्षेत्रावगाह संबंध से उत्पन्न, पर्याय विशेष को हम असमानजातीय द्रव्य पर्याय कहते हैं। वास्तव में वह कोई पर्याय ही नहीं है, पर्याय तो दोनों द्रव्यों में होने वाली उन उनकी पर्यायें हैं। पदार्थ पर्याय बिना का होता नहीं और पर्यायें सब अपने-अपने द्रव्यों से संबद्ध रहती हैं । ज्ञेय तो वास्तव में पदार्थ होता है लेकिन अज्ञानी तो दोनों द्रव्यों की एक क्षेत्रावगाह से उत्पन्न पर्याय- विशेष को ही अपने रूप में मान बैठा है, इसलिए वह तो उसी को अपना ज्ञेय बनाता है । इसलिए प्रवचनसार, ज्ञेय का यथार्थ स्वरूप बताकर इन दोनों की एकत्वबुद्धि तोड़कर, जीव एवं पुद्गल दोनों को अलगअलग पदार्थ के रूप में स्थापित करता है । यथार्थतः ज्ञेय तो पदार्थ होता है और अज्ञानी मात्र पर्याय को ही ज्ञेय बनाता है। इस ग्रंथ के द्वारा उसको उसकी भूल का ज्ञान कराकर यथार्थ स्वरूप बताया है । यथार्थतः तो असमानजातीय द्रव्य-पर्याय का अस्तित्व ही ज्ञेय के रूप में समाप्त हो जाता है तथा दोनों की एकत्वबुद्धि का अभाव हो जाने से मोह की उत्पत्ति के कारणों का भी अभाव हो जाता है आदि विषयों पर भी चर्चा भाग-४ में की गई है।
भाग
शंका :- विभाव गुण पर्याय से भी भेदज्ञान हुए बिना आत्मोपलब्धि तो नहीं हो सकती ?
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५ का विषय
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समाधान :- असमान जातीय द्रव्य पर्याय का तो वास्तव में कोई अस्तित्व ही नहीं बनता। वे तो दो द्रव्यों की भिन्न-भिन्न पर्यायें हैं । उन दोनों को मिलाकर कह देने से एक द्रव्य की पर्याय कैसे हो सकती है ? फिर भी उनको किसी एक द्रव्य की कहना अज्ञानी का स्थूल उपचार एवं मिथ्यात्व है ।
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