Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषित संदोहः
[ ३:१-२
3 ) न नर दिविजनांधी येषु तृप्यन्ति तेषु कथमपरनराणामिन्द्रियार्थेषु तृतिः ।
वहति सरिति यस्यां दर्तिनाथो ऽतिमात्रो" भवति हि शशकानां केन तत्र व्यवस्था ॥ ३ ॥ 4 ) दविषयदोषा ये तु दुःखं सुराणां कथमितरमनुष्यास्तेषु सौख्यं लभन्ते । Hroenale: क्लिश्यते येन हस्ती क्रमपतितमृगं स स्पक्ष्मतीभारि ॥ ४ ॥
ये इन्द्रियार्थेषु नर- दिविजनाथाः न तृप्यन्ति तेषु अपरमराणां कथं तृप्तिः [ स्यात् ] । हि यस्यां सरिति अतिमात्रो दन्तिनाथः बहते तत्र शशकानां केन व्यवस्था भवति ॥ ३ ॥ ये तु विषयदोषाः सुराणां दुःखं ददति, दतरमनुष्याः तेषु कथं सौ लभन्ते । येन महमलिनकपोलः हस्ती क्लिश्यते स इभारिः अत्र क्रमपतितं मृगं ( पादाक्रान्तहरिणं ) व्यस्यति [ कथमपि न या | ] || ४ || यदि समुद्रः सिन्धुतोयेन कथमपि तुतो भवति च यदि वह्निः काठसंघाततः कथमपि सः भवति तद
जन्म दुःख दे सकते हैं और वह भी अधिक से अधिक मरण तकका, परन्तु वह विषयरूप शत्रु ( विषयतृष्णा ) सपको संचित कराके अनेक जन्म-जन्मान्तरोंमें दुःख दिया करता है । अत एव उन लौकिक शत्रु आदिकोंकी अपेक्षा प्राणीको इस विषय शत्रु से अधिक भयभीत रहना चाहिये, ऐसा यहां अभिप्राय सूचित किया गया है ॥२॥ जिन इन्द्रियविषयोंके भोगनेसे नरनाथ ( चक्रवर्ती) और इन्द्र भी तृप्तिको नहीं प्राप्त होते हैं उनसे मला साधारण मनुष्य कैसे तृप्त हो सकते हैं + नहीं हो सकते। ठीक है-जिस नदी प्रवाह में अतिशय बलवान् हाथी बह जाता है उसमें क्षुद्र खरगोशोंकी व्यवस्था किससे हो सकती है ? किसीसे भी नहीं हो सकती है ॥ विशेषार्थ - विषयतृष्णा तीव्र नदीके प्रवाहके समान प्रबल है । जिस प्रकार वेगसे बहनेवाली नदीके प्रवाह में जहां बड़े बड़े हाथी जैसे प्राणी बहे चले जाते हैं वहां खरगोश आदि नगण्य पशुओंकी कुछ गिनती नहीं की जा सकती है उसी प्रकार जिन इन्द्रियविषयोंसे अपरिमित त्रिभूतिवाले चक्रवर्ती और देवेन्द्र भी कभी तृप्त नहीं हो सके हैं उनसे परिमित विभूतिको धारण करनेवाले दूसरे सामान्य मनुष्य कभी सन्तोषको प्राप्त होंगे, यह तो आशा नहीं की जा सकती है। कारण कि विषयोंका उपभोग तो उस विषयतृष्णाको उत्तरोत्तर और अधिक बढ़ाता है- जैसे कि अग्रिकी ज्यालाको उत्तरोत्तर इन्धन बढ़ाता है । यही अभिप्राय स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी प्रकट किया है- तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव । त्यित्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥ अर्थात तृष्णारूप अभिकी जो ज्वालायें प्राणी हृदयमें जला करती हैं उनकी शान्ति अभीष्ट इन्द्रियविषयों की प्राप्तिसे नहीं हो सकती है, उससे तो वे और अधिक बढ़ती ही हैं। कारण कि उनका ऐसा स्वभाव हो हैं । अभीष्ट इन्द्रियविषयोंकी प्राप्ति केवल थोड़ी देरके लिये शरीरके सन्तापको दूर करनेका साधन बन सकती है, किन्तु वह उस विषयतृष्णाको शान्त नहीं कर सकती है। यही कारण है जो हे कुन्यु जिनेन्द्र ! आप इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके चक्रवर्तीकी भी विभूतिका परित्याग करते हुए उस विषयजन्य सुखसे विमुख हुए हैं [ . . ८२ ] ॥ ३ ॥ जो विषयजन्य दोष देवोंको दुख देते हैं उनके रहनेपर भा साधारण मनुष्य कैसे सुख प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं प्राप्त कर सकते। ठीक है- जिस सिंहके द्वारा झरते हुए मदसे मलिन गण्डस्थलवाला अर्थात् मदोन्मत्त हाथी भी कष्टको प्राप्त होता है वह पैरोंके नीचे पड़े हुए मृगको छोड़ेगा क्या ? अर्थात् नहीं छोड़ेगा ॥ विशेषार्थ - विषयसामग्री मनुष्यों की अपेक्षा देवोंके पास
१ स नाथो । २ संतुष्यन्ति । ३ स सरति । ४ सयस्यादेतनाथोनमंतो । ५ सत्र मते 'तिमतो | ६ स मृगं सत्पक्ष भारिर, "तीभाररत्र, "मृर्ग किं यक्षती मोरित्र ।