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जमीकंद की ग्राह्यता अग्रह्यता का प्रश्न यह कहकर कि ये अब अनन्तकायिक नहीं रहे। कुछ दिनों के बाद गाजर की कांजी या अचार को भी ग्राह्यता की कोटि में रख दिया जाता है उनके तर्क पर एक प्रतितर्क यह है कि उबलने के बाद जो आलू - गाजर की सब्जी खाई जाती है क्या वह सचित्त रह गई जो उसे अनन्तकायिक कहा जा रहा है।
जहां तक श्रावकों द्वारा जमीकंद खाने के त्याग की बात है वह भी अहिंसा की दृष्टि से ज्यादा उच्च नहीं जंचती क्योंकि गृहस्थ आलू आदि खरीदता है, बेचता है, काटता है औरों को परोसता है, शीतगृहों में रखता है, उनकी खेती करता है, तो क्या खाने में दो-चार आलू का त्याग करके हिंसा रुक गई? ये तो वहीं बात हुई कि एक आदमी खुद अण्डा नहीं खाता पर पूरे पॉल्ट्री फार्म को चलाता है। होटल में उसका सेवन कराता है। क्या हम उसे बड़ा त्यागी कहें ?
एक आगमिक संदर्भ इस विषय में उद्धृत किया जाता है जिससे अनन्तकाय की हिंसा अधिक प्रमाणित की जाती है। छेद सूत्रों में वर्णन है कि साधु के आहार में भूल से प्रत्येक वनस्पति आ जाए तो उसका दण्ड ज्यादा है। जमीकंद के त्याग के समर्थकों ने इस दण्ड को बहुत अधिक महत्त्व दिया है पर छेद सूत्रों में यह दण्ड व्यवस्था कोई संख्या पर आधारित नहीं है अपितु प्रमाद की अधिकता को लेकर की गई है। साधु अपनी भिक्षा लेते समय यदि यह भी गौर न करे कि ग्राह्यमाण वस्तु पर नीलनफूलन लग गई है, फूई- फफूंद जम गई है और उस वस्तु को ले आए तो उसका दण्ड ज्यादा है जबकि शाक आदि में अपक्व वनस्पति का टुकड़ा आ जाए तो उसका दण्ड अल्प है। यह अर्थ हमें अर्थापत्ति से निकालना होगा। ऐसा ही अन्य प्रसंग है कि मुनिराज विहार यात्रा में हैं, एक ओर प्रत्येक वनस्पति है, दूसरी ओर अनन्तकायिक हैं तो प्रत्येक पर पैर रखकर अनन्त - काय को बचाएं। इस प्रसंग में भी विचारणीय यह है कि एक ओर काई है और दूसरी ओर घास है। घास के जीवों के शरीर काई की तुलना में कुछ न कुछ अधिक सक्षम हैं, वे पैर के भार से कुछ मरें, कुछ बचें दोनों ही संभावनाएं हैं जबकि काई के जीवों का शरीर बहुत मुलायम, चिकना एवं भार सहने में असमर्थ है, वह शीघ्र मरेगा। अतः 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अ त्यजति पंडित:'- सिद्धान्त यहां लागू होगा। किसी क्रिया का जो भी दण्ड छेदसूत्रों में लिखा है वह किसी भी क्रिया का विधान और निषेध नहीं कर सकता क्योंकि छेदसूत्रों में कई स्थलों पर अत्यल्प दोष पर कड़ा दण्ड है तो कहीं महान दोष पर अत्यल्प दण्ड लिखा है । निशीथ के १८ वें उद्देशक में वर्णन है कि अनर्थ में (बिना जरूरत के) नौका की सवारी, नौका को पानी के अन्दर से बाहर लाने, नौका में से पानी निकालने आदि २०-२५ क्रियाओं पर लघु चौमासी दण्ड है और राजा के पशु