Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११
अस्ति किञ्चन कर्मैकं तद्विपक्षं ततः पृथक् । पं०अ०, उ० १११४ जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ॥प्र० सा०, ६०॥ सकलविप्रमुक्तः सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जडो, नापि चैतन्यमात्ररूपः। स्वयम्भूस्तोत्र, टीका ५/१३ पं० बलदेव उपाध्याय, न्यायदर्शन, भारतीय दर्शन , पृ० २७०
स्वरूपैकप्रतिष्ठान: परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः। न्यायमञ्जरी, पृ० ७७ ___ मुक्तये य: शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् ।
गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः ॥ नैषधचरित, १७.७५ वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् । वैशेषिकोक्तमोक्षस्तु सुखलेशविवर्जितात् ।। स० सि० सं०, पृ० २८ नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेद: मोक्षः।
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