Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 40
________________ वैदिक एवं जैन परम्परा में द्रौपदी कथानक : उद्भव एवं विकास : ३३ द्रौपदी को आधार बनाकर एकमात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ 'द्रौपदी स्वयंवर'२६ की रचना, विजयपाल (सन् ११९४-१२४३) ने की। इस नाटक में द्रौपदी के स्वयंवर सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होते हैं। ये उल्लेख वैदिक एवं जैन दोनों ही परम्पराओं से भिन्न नाटककार की मौलिक कल्पना के परिणाम हैं। देवेन्द्रसूरि (१३वीं शताब्दी) विरचित 'कृष्णचरित' २७ में द्रौपदी का पूर्वभव एवं पद्मनाभ-प्रसङ्ग वर्णित है, किन्तु द्रौपदी विवाह, वनवास आदि की भी सूचना मिलती है। सन् १४१९-१४३२ ई० के मध्य कवि मण्डन मंत्री द्वारा विरचित 'काव्य मण्डन'२८ में द्रौपदी-विवाह के विषय में मिलने वाली सूचना पूर्णरूपेण महाभारत पर आधारित है। स्वयंवर-शर्त एवं माता कुन्ती की आज्ञानुसार द्रौपदी को भिक्षा समझकर दिया गया वक्तव्य 'महाभारत' को आधार बनाकर उल्लिखित है। शुभचन्द्र रचित 'पाण्डवपुराण' ३९ (१५५१ ई०) में द्रौपदी-कथा विस्तृत रूप में मिलती है। इसकी कथा 'हरिवंशपुराण' और 'पाण्डवचरित' से प्रायः समानता रखती है। इसमें भी द्रौपदी के सतीत्व के प्रतिपादन हेतु उसे एकमात्र अर्जुन की ही पत्नी बताया गया है। इसमें भी द्रौपदी का अपमान पाण्डवों के समक्ष नहीं बताकर, उसके महल में बताया गया है। वनवास, अज्ञातवास, अमरकङ्का-प्रसङ्ग, पूर्वभव आदि वृत्तान्त जैन ग्रन्थों से कुछ भिन्नता लिये हुए वर्णित हैं। गुणविजयगणि रचित 'नेमिनाथचरित'३० (१६११ ई०) में उपलब्ध द्रौपदी-स्वयंवर एवं पूर्वभव की कथा ज्ञाताधर्मकथा से पूर्ण सादृश्य रखती है; किन्तु उससे भिन्न द्यूत-क्रीड़ा एवं वनवास के रूप में द्वारिका-गमन की कथा 'अममस्वामिचरित' के सदृश है। अमरकङ्का वृत्तान्त 'ज्ञाताधर्मकथा' से कुछ भिन्न है। पश्चाद्वर्ती कल्पसूत्र-व्याख्या साहित्य में कल्पसूत्र में सूचनारूप में उपलब्ध कृष्ण के अमरकङ्का-गमन की कथा का ही वर्णन किया गया है। वैदिक एवं जैन-परम्परा के अतिरिक्त बौद्ध-परम्परा में भी द्रौपदी का उल्लेख मिलता है। वहाँ भी द्रौपदी का विवाह 'महाभारत' के समान ही स्वयंवर-विधि से बताया गया है।३१ 'कुणाल जातक' ३२ में द्रौपदी से सम्बन्धित यह श्लोक मिलता है अथ अज्जुनो नकुलो भीमसेनो युधिट्ठिलो सहदेवो च राजा। ऐते पती पञ्चमतिच्च नारी अकासी खुज्ज वामनेनं पापं ।।१।

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