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जैन दर्शन में प्रमेय का स्वरूप एवं उसकी सिद्धि : ४७ भाव की ही अनुपपत्ति होगी क्योंकि अन्यत्व होने पर भी समान परिणाम और असमान परिणाम तथा उभय ये भिन्न स्वभाव वाले हैं। उदाहरणार्थ- समान बुद्धि और शब्द में कारण स्वभाव वाला वह समान परिणाम तथा विशिष्ट बुद्धि और शब्द उत्पन्न करने वाले इतर परिणाम यथोक्त संवेदन और अभिधान (शब्द), संवेद्य और अभिधेय हैं वही विषादि हैं, ऐसी प्रतीति है, अन्यथा यथोक्त (सामान्य-विशेषरूप) संवेदनादि के अभाव का प्रसंग आएगा। इसलिए यद्यपि दोनों (विष और मोदक) उभयरूप (सामान्य-विशेषरूप) हैं तथापि विषार्थी विष के लिए ही प्रवृत्त होता है क्योंकि विष का विशेष परिणाम मोदक के सामान्य परिणाम से अविनाभूत नहीं है। अत: उक्त शंका अयोग्य है। इस प्रकार वस्तु सामान्य-विशेषात्मक सिद्ध होती है।
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सन्दर्भ सूची
पाणिनिसूत्र, मद्रास गवर्नमेण्ट ओरिएण्टल मैनुस्क्रिप्ट सिरीज, गवर्नमेण्ट
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