Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 69
________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ सप्तांग राज्य राज्य के मुख्य रूप से सात अंग माने गये हैं। सात अंगों के परिपूर्ण होने पर ही राज्य सुचारू रूप से चलता है। याज्ञवल्क्यस्मृति में राज्य के सात अंग माने हैं-५ १. स्वामी, २. अमात्य, ३. राष्ट्र, ४. दुर्ग, ५. दण्ड, ६. कोश एवं ७. मित्र। इन सातों में मित्र का स्थान महत्त्वपूर्ण माना गया है। सुवर्ण और भूमि के लाभ से भी मित्र की प्राप्ति अधिक महत्त्वपूर्ण मानी गई है. क्योंकि राजा को उसका सच्चा मित्र सदा सच्चा मार्ग दिखाता है और सदैव अहित व हित की बात बताता है। स्वामी/राजा दीप्त्यर्थक राजृ धातु में कनिन् प्रत्यय के योग से राजन् शब्द की निष्पत्ति होती है और इसका शाब्दिक अर्थ दीप्यमान, प्रकाशमान अथवा प्रतापवान होता है। समाज में शांति एवं व्यवस्था की स्थापना के लिए, वर्ण संकरता को रोकने के लिए तथा लोकमर्यादा की रक्षा के लिए राजा की परम आवश्यकता थी। मनुस्मृति के अनुसार सम्पूर्ण सम्प्रभुता राजा में ही निहित है। सोमदेव के अनुसार राजा के लिए पराक्रम, सदाचार तथा राजनीतिक ज्ञान तीनों ही बातें राज्य को स्थायी बनाने के लिए परम आवश्यक हैं। अन्य भारतीय परम्पराओं के समान ही जैन परम्परा भी राजा के श्रेष्ठ वंश की कुल परम्परा को महत्त्वपूर्ण मानती है। यद्यपि जैन दृष्टि जाति के विरुद्ध थी तथापि ब्राह्माण परम्परा के अनुकूल इसमें भी राजा के क्षत्रिय कुलोत्पन्न होने का विधान था। स्वयं भगवान महावीर ज्ञातक नामक क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे। क्षत्रिय राजा का. जातिमान होना आवश्यक था। हरिवंशपुराण में राजा के लिए भूप, नराधीश, क्षत्रिय, नायक, राजन, महाराज, क्षितीश्वर, क्षितिभृत, नृप, नरेश्वर, अधिपति, प्रजाति इत्यादि पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए है। राजा को उत्तम लक्षणों से युक्त होना चाहिए। उसे स्वर से सुस्वर, गम्भीर, एक हजार आठ लक्षणों से युक्त, ऋषिगोत्र का धारक, वज्रऋषभ-नाराच-संहनन तथा मछली के उदर के समान कोमल उदर वाला होना चाहिए।१० कहकोसु की कथावस्तु राजपरिवार से भी सम्बन्धित है तथा इसमें राजा धनसेन, चक्रवर्ती भरत, राजा श्रेणिक, राजा महापद्म तथा पद्म, राजा महाबल, राजा विशाखदत्त आदि अनेक राजाओं की श्रेष्ठ शासन-व्यवस्था का उल्लेख है।११ राजा

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