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कहकोसु (कथाकोश) में वर्णित राजनैतिक चिंतन : ६१ राजनीति प्राचीन भारत में राजनीतिशास्त्र को राजधर्म, राज्य शास्त्र, दण्डनीति आदि नामों से सम्बोधित किया जाता था। भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा भी बहुत प्राचीन रही है। आचार्य कौटिल्य तथा सोमदेव से बहुत पूर्व यहाँ अनेक राजनीतिशास्त्रकार हो चुके थे जिनके मतों का उल्लेख महाभारत, कौटिलीय अर्थशास्त्र, कामन्दक के नीतिशास्त्र तथा नीतिवाक्यामृतम् में उपलब्ध होता है। कहकोसु इन सबसे पृथक् एक कथा ग्रन्थ है। यहाँ जो कुछ यत्र-तत्र राजनीति विषयक उल्लेख है वह कथा कहानियों के रूप में उपलब्ध है। इसके अनुशीलन से तत्कालीन समाज में प्रचलित राजनीति का आभास मिलता है। जनपद व्यवस्था भोगभूमि का अन्त होने पर, जब कल्पवृक्ष नष्ट होने लगे तथा प्रजा के समक्ष
आजीविका की समस्या उपस्थित हुई तो प्रजा महाराज ऋषभदेव के पास गई तथा निवेदन किया। ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या तथा वाणिज्य इन छ: कर्मों की व्यवस्था की, इसके पश्चात् इन्द्र ने अयोध्या में जिनालयों एवं तदनन्तर जनपदों की व्यवस्था की। उन जनपदों के मध्य भाग में परिखा, धूलिसाल, कोटगोपुर तथा अट्टालकों से सुशोभित नगर, ग्राम, पुर, खेट, खर्वट, पट्टन आदि की रचना की। अतः प्रतीत होता है कि जनपद नगर में, नगर ग्राम में, ग्राम पुर में, पुर खेट में तथा खेट खर्वट में विभाजित थे।
राजतन्त्र
मेगस्थनीज के विवरण के अनुसार ईसा की चौथी शताब्दी पूर्व भारत में एक परम्परा प्रचलित थी जिसके अनुसार प्रजातन्त्र का विकास राजतन्त्र के बाद माना जाता था। पुराणों में बुद्ध के पूर्व की जो राजवंशावली है उससे प्रकट होता है कि छठी शताब्दी के मद्र, कुरु, पांचाल, शिवि और विदेह गणतन्त्र पहले नृपतन्त्र ही थे। जन सामान्य का सहज आकर्षण प्रभावी राजतन्त्र की ओर ही था। यही कारण है कि ऋग्वेद से आरम्भ हुई शासनतन्त्र की यात्रा महाजनपद से जनपद होती हुई पुनः नृपतन्त्र या राजतन्त्र में परिवर्तित होती गई। जैन सूत्रों में गणतन्त्रात्मक पद्धति के प्रति दृष्टिकोण सहानुभूतिपूर्ण दिखाई देता है किन्तु यथार्थ में प्रबल आकर्षण सबल राजतन्त्र की ओर ही था। कहकोसु में दृष्टांतों के माध्यम से राजतन्त्र को महत्ता भी दी गई है।