________________
६८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११
सम्माननीय कर्म समझा जाता था तथा व्यंजनहीन कथा, अर्थहीन कथा, व्यंजन अर्थ हीन कथा, व्यंजन अर्थ उभय शुद्धि कथा में भी राजा अपने शत्रु को जीतने के लिए सैनिकों को लेकर प्रयाण करता है । ३१ इससे भी यह ध्वनित होता है कि असि कर्म परम आवश्यक कर्म माना जाता था ।
विद्या
विद्या द्वारा आजीविका से तात्पर्य है कि कुछ लोग पठन-पाठन द्वारा आजीविका अर्जित करते थे। पुरोहित को इस वर्ग में रखा जा सकता था। कहकोसु में पठनपाठन के द्वारा भी आजीविका का अर्जन करते थे। चण्डप्रद्योत राजकुमार को अध्ययन कराने के लिए कालसंदीव नामक आचार्य की नियुक्ति की गई थी तथा वीरसेन राजा के पुत्र सिंहरथ के अध्यापन के लिए राजा ने गर्ग नामक आचार्य की नियुक्ति की एवं वीरदत्त राजा ने अपने पुत्र के अध्ययन के लिए राजसेवकों को पत्र लिखा कि उसके पुत्र के अध्यापन की व्यवस्था कराई जाए। ३२ इस प्रकार पुराकाल में विद्या अध्यापनअध्ययन से धन का अर्जन करके आजीविका उपलब्ध की जाती थी।
वाणिज्य
व्यापार करना ही वाणिज्य है। जिस देश में कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य व्यवसायों की उन्नति न हो उस देश की आर्थिक उन्नति कभी नहीं हो सकती क्योंकि इन तीन पर ही देश की आर्थिक उन्नति निर्भर करती है। कहकोसु में उल्लेख आता है कि हरिदत्त व्यवसायी ने सोमदत्त मुनि से अपना कर्ज माँगा। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में व्यापार में लेनदेन में धन की उधारी होती थी। कहकोसु में मदिरापान का एवं मदिरा विक्रय का उल्लेख प्राप्त होता है। कल्लासमित्र की कथा में मदिरा व्यापारी पूर्णचंद्र का नामोल्लेख किया है। ३३ इससे प्रतीत होता है कि मदिरा का भी व्यापार किया जाता था। कहकोसु में व्यापारियों के नामोल्लेख में सूरदत्त वणिक् के पुत्र सूरमित्र और सूरचन्द्र नाम आते हैं जो व्यापार के उद्देश्य से विदेश गमन करते हैं और वहाँ पर व्यापार करके एक रत्न खरीदते हैं। इससे प्रतीत होता है कि व्यापार कर्म भी इस काल में प्रचलित था।
शिल्प
आदिपुराण में ‘शिल्पं स्यात्करकौशलम्' अर्थात् हस्तकौशल को शिल्पकर्म कहा गया है। हस्तकौशल के अन्तर्गत बढ़ई, लोहार, कुम्हार, चमार, सोनार आदि की उपयोगी कलाएँ तो सम्मिलित थीं ही पर चित्र बनाना तथा फूल-पत्ते काटना भी इसी