Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ ११२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ १. राजकुमार पार्श्व जब घूमते हुए गंगा नदी के तट पर यज्ञ कर रहे तपस्वी (कमठ का जीव) के द्वारा यज्ञकुण्ड में डाली जा रही लकड़ी में अवधिज्ञान से सर्प-सर्पिणी के जीवों को देखते हैं तो उस तपस्वी को ऐसा करने से मना करते हैं। तपस्वी उनकी बात पर विश्वास नहीं करता है और लकड़ी को जब चीरता है तो उसमें से मरणासन सर्प-सर्पिर्णी निकलते हैं। पार्श्व उन्हें नवकार मंत्र सुनाते हैं जिसके प्रभाव से वे दोनों सर्प-सर्पिणी नागलोक में धरणेन्द्र और पद्मावती के रूप में जन्म लेते हैं। २. जब पार्श्वप्रभु ध्यानस्थ मुद्रा में कठोर तप कर रहे थे तब कहीं से कमठ का जीव सम्वरदेव/महिपाल वहाँ आता है और उन्हें देखकर पूर्वजन्म का स्मरण करता है तथा उन्हें अपना शत्रु समझकर उनके ऊपर घनघोर जलवर्षा, अग्निवर्षा आदि करके उपसर्ग करता है। जब इसका ज्ञान धरणेन्द्र और पद्मावती को होता है तो वे आकर प्रभु को अपने ऊपर बैठाकर तथा उनके सिर पर फनों का छत्र लगाकर उनकी रक्षा करते हैं। उस उपसर्ग के शान्त होने पर धरणेन्द्र और पद्मावती के साथ प्रभु पार्श्व उपसर्गकर्ता देव के प्रति भी मंगल-कामना करते हैं। पार्श्व प्रभु के पञ्च कल्याणकों की तिथियाँ हैं- (१) च्यबन या गर्भ- चैत्र कृ० ४ (दिग० वैशाख वदी २), विशाखा नक्षत्र, (२) जन्म- पौष कृ० १० (दिग० पौष कृ० ११), अनुराधा नक्षत्र (दिग० विशाखा नक्षत्र), (३) दीक्षा या तप- पौष कृ० ११, (४) ज्ञान- चैत्र कृ० ४, विशाखा नक्षत्र, (५) निर्वाण- श्रावण शु० ८ (दिग० श्रावण शु० ७) विशाखा नक्षत्र, (६) निर्वाण स्थल- सम्मेदशिखर। राशि कुम्भ तथा वर्ण नीलमणि की तरह था। श्वेताम्बर मान्यतानुसार आपका विवाह प्रसेनजित राजा की पुत्री प्रभावती से हुआ था। भगवान् पार्श्वनाथ की आयु १०० वर्ष की थी जिसमें ३० वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे तथा सत्तर वर्ष तक साधु बनकर धर्मोपदेश देते रहे। उत्तराध्ययनसूत्र के केशीगौतमीय संवाद से ज्ञात होता है कि उन्होंने सचेल (सन्तरोत्तर) तथा चातुर्याम (अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह) धर्म का देशकालानुरूप उपदेश दिया था जिसे महावीर ने देशकाल की परिस्थिति के अनुसार रत्नत्रय का ध्यान रखकर अचेल और पंचयाम में परिवर्तित किया था। दिगम्बर परम्परा में सचेल-अचेल का उल्लेख तो नहीं है परन्तु चातुर्याम की चर्चा अन्य रूप में मिलती है। देशकाल की परिस्थितियाँ आदिनाथ से लेकर महावीरपर्यन्त तक की दोनों परम्पराओं में एक जैसी मिलती हैं। __ प्रो० सुदर्शन लाल जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130