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जैनागमों में स्वप्न-विज्ञान
कु. मञ्जू जैन
इस आलेख में लेखिका ने श्वेताम्बर जैनागमों के आलोक में तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि की माताओं द्वारा देखे जाने वाले स्वप्नों तथा उनके स्वप्नफलों की चर्चा की है। इस आलेख में यदि दिगम्बर-मान्यता तथा ज्योतिष ग्रन्थों के प्रमाण भी जोड़े जाते तो अच्छा होता, फिर भी प्रयास अच्छा है।
-सम्पादक
ज्ञाताधर्मकथा के मेघकुमार नामक अध्ययन में धारिणी के द्वारा देखे जाने वाले स्वप्न का विवेचन है। वह स्वप्न में अपने मुख में हाथी को प्रवेश करते हुए देखती है। अर्धनिद्रित अवस्था में मानव को स्वप्न आते हैं। अष्टांगहृदय के अनुसार जब इन्द्रियाँ अपने विषय से निवृत्त होकर प्रशान्त हो जाती हैं और मन इन्द्रियों के विषयों में लगा रहता है तब वह स्वप्न देखता है। जैनदर्शनानुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय है। सिग्मण्ड फ्रायड ने स्वप्न का अर्थ दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति कहा है। चार्ल्स युंगरे स्वप्न को केवल अनुभव की प्रतिक्रिया नहीं मानते हैं। वे स्वप्न को मानव के व्यक्तित्व का विकास और भावी जीवन का द्योतक मानते हैं। फ्रायड और युंग के स्वप्न संबंधी विचारों में मुख्य अन्तर यह है कि फ्रायड यह मानता है कि अधिकांश स्वप्न मानव की कामवासना से संबंधित होते हैं जबकि युंग का मानना है कि स्वप्नों का कारण मानव के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छाओं का दमन मात्र ही नहीं होता अपितु उसके गंभीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी होती हैं। आचार्य जिनसेन ने स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले- ये दो प्रकार के स्वप्न माने हैं। आचार्य ने दोष-समुद्भव और देव-समुद्भव' इस प्रकार स्वप्न के दो भेद भी किये हैं। वात, पित्त, कफ, प्रभृति शारीरिक विकारों के कारण जो स्वप्न आते हैं वे दोषज हैं। इष्टदेव या मानसिक समाधि की स्थिति में आने वाले स्वप्न देव-समुद्भव कहलाते हैं। स्थानांग व भगवती" में पाँच प्रकार के स्वप्नों का वर्णन है
यथातथ्य स्वप्न - जो स्वप्न में देखा है जागने पर उसी तरह देखना, अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल, शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति।