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६६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ अर्थशास्त्र में चाणक्य लिखते हैं- आचार्य के पीछे शिष्य, पिता के पीछे पुत्र और स्वामी के पीछ जिस प्रकार भृत्य चलता है उसी प्रकार राजा को पुरोहित का अनुगामी होना चाहिए। राजा प्रत्येक राजनीतिक तथा धार्मिक कार्य पुरोहित की सलाह से करता था।२५ कहकोसु में पुरोहित के वर्णन के लिए शिवभूति ब्राह्मण का नामोल्लेख होता है। शिवभूति ब्राह्मण राज्य में सभी मनुष्यों से श्रेष्ठ आचरण वाला था। परन्तु कल्लास मित्र की संगति के कारण वह राजा से दण्डित हुआ। इसी प्रकार वज्रकुमार की प्रभावना अंग की कथा में सोमदत्त के पिता रुद्रदत्त राजा के यहाँ पुरोहित कार्य करते थे तथा सोमदत्त का मामा सुभूति राजा का पुरोहित था। कहकोसु में पुरोहित कर्म की योग्यता के लिए सुकुमाल मुनि की कथा में सोमशर्मा के अग्निभूति एवं वायुभूति नामक पत्रों को राजा ने पुरोहित कर्म के योग्य योग्यता दिखलाने के लिए कहा कि तुम्हें ज्योतिष विद्या का ज्ञान है, निमित्त शास्त्र जानते हो, पूजा आदि कार्य जानते हो इस प्रकार धनुर्विद्या, राजनीति, अर्थनीति आदि शास्त्रों के ज्ञाता होने के संकेत मिलते हैं।२६ परन्तु दस संधियों में पुरोहित का नाम आया है जो राजा का विश्वसनीय होता है, पर उसके कार्य के विषय में जानकारी का अभाव है। दण्ड-व्यवस्था भारत धर्म प्रधान देश के साथ ही कर्म प्रधान देश भी है। इसमें जितना महत्त्व धर्म को दिया जाता है, उतना ही महत्त्व कर्म को भी दिया जाता है। धर्म की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए पुण्य-पाप का विवेचन करके धार्मिक व्यक्तियों को पाप से बचने का निर्देश दिया है। परन्तु जो व्यक्ति धर्म से अनभिज्ञ है या धर्म में जिनकी आस्था नहीं है, उन व्यक्तियों के लिए भगवान् आदिनाथ ने सर्वप्रथम कर्म स्वरूप दण्ड का विधान किया। गलती करने वाले को पश्चात्ताप स्वरूप हा शब्द का विधान किया, जिसका अर्थ गलती को स्वीकार करना है। परन्तु मानव जब अपनी गलती को दुबारा करने लगा तो उसके लिए हा शब्द के साथ मा शब्द का प्रयोग भी होने लगा जिसका अर्थ नहीं करूंगा। इन दो दण्डों के प्रयोग के बाद भी जब मानव की प्रवृत्ति पाप कर्म से रहित नहीं हुई तो धिक् शब्द के द्वारा अपने को धिक्कार करने का दण्ड प्रचलित हुआ।२७ भगवान् आदिनाथ के पश्चात् भरत चक्रवर्ती भरतवर्ष का राजा हुआ। उसके समय में पाप कर्म की प्रवृत्ति अधिक होने लगी और पूर्व में निर्धारित दण्ड का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तब भरत ने उनके लिए शारीरिक दण्ड को सुचारु रूप से चलाया
और व्यक्ति के मन, वचन, काय की क्रिया के अनुसार न्याय-अन्याय में विभक्त कर उसको दण्ड देने का विधान किया। भरत चक्रवर्ती ने धर्म और कर्म के अनुसार दण्ड का स्वरूप निर्धारित किया।