________________
परीक्षामुख में प्रमाण-लक्षण निरूपण : एक अध्ययन : ५३ में 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं स्यादिति वचनात्' के पश्चात् आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में वाच्य को उद्धृत किया गया है। समन्तभद्र की आप्तमीमांसा के 'अवभास' पद और इन्हीं के स्वयम्भूस्तोत्र तथा सिद्धसेन के न्यायावतार के 'स्वपरावभासी' पद के स्थान पर परीक्षामुख में 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक' पद का प्रयोग किया है। जैन परम्परा में सर्वप्रथम व्यवसायात्मक पद अकलंकदेव से आया क्योंकि जैन परम्परा में सर्वप्रथम व्यवसायात्मक पद का प्रयोग उनके लघीयस्त्रय में ही दृष्टिगोचर होता है, जिसका प्रयोग उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थों में भी किया है तथा उत्तरवर्ती जैन परम्परा में सर्वत्र बहुमान के साथ यह पद प्रयोग किया गया है। परीक्षामुख के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में प्रमाण के लक्षणों के रूप में 'व्यवसायात्मक' पद का ही प्रयोग देखने को मिलता है। किन्तु आचार्य प्रवर माणिक्यनन्दी ने प्रमाण के लक्षण में 'अपूर्व' शब्द को स्थान देकर कहा है 'स्व' अर्थात् अपने आप को और 'अपूर्वार्थ' अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से जाना नहीं है, ऐसे पदार्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण के इस लक्षण में अपूर्व पद की वृद्धि क्यों हुई, यह बिन्दु अवश्य विचारणीय है, क्योंकि जहाँ प्रमाण के 'अपूर्व' पद रहित लक्षण के सम्बन्ध में सभी जैन नैयायिकों का एक मत है तो वहाँ 'अपूर्व' पद के सम्बन्ध में मतभेद क्यों? सम्भवतः अपूर्व रूपी यह संशय उपस्थित हो जाए इसलिए इसे इस तरह समझ सकते हैंप्रमाण का मूल आधार तो ज्ञान ही है, अत: प्रमाण के साथ ज्ञान को रखा है। ज्ञान का प्रयत्न कैसा हो? यह बतलाने के लिए पहले 'व्यवसायात्मकं' पद रखा है। ज्ञान के प्रयत्न का विषय कहीं कल्पनालोक न बन सके, वस्तु जगत् रहे, इसके लिए व्यवसाय के पूर्व 'अर्थ' पद दिया गया है। ज्ञान का विषय वस्तु जगत् होने पर भी कहीं उसमें पिष्टपेषण न होता रहे, अतः इस दोष से बचने के लिए 'अपूर्व' शब्द रखा है। बाह्य वस्तु जगत् की खोज में स्वयं न खो जाए, बाह्य जानकारी के मोह में कहीं स्वयं से ही अनजान न रह जाए। 'स्व' भी एक वस्तु है। अत: सर्वप्रथम उसका भी ज्ञान होना आवश्यक है, इसीलिए सूत्र के आदि में ही 'स्व' पद रखा है। जैनदर्शन में इस पद का अत्यधिक महत्त्व है। 'स्व' के ज्ञान बिना उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रमाण' की कोटि में ही नहीं रखा जा सकता है। अत: 'स्व' शब्द सूत्र का सिरमौर है। इस तरह सूत्र का प्रत्येक शब्द सार्थक व परमत का खण्डन करने में सक्षम है। इसमें ज्ञान पद तो नैयायिकों के सन्निकर्ष व वैशेषिकों के कारक-साकल्यवाद का खण्डन करता है। 'व्यवसायात्मक' बौद्धों के निर्विकल्पवाद का तथा 'अर्थ' पद विज्ञानाद्वैतवाद, 'अपूर्व' पद धारावाहिक ज्ञान तथा 'स्व' पद से ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने वाले मीमांसक तथा