Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 59
________________ ५२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ को प्रमाण मानती हैं अर्थात् इन परम्पराओं में ज्ञान के कारण को प्रमाण माना गया है और ज्ञान को उसका फल। प्रमाण का लक्षण परीक्षामुख में आचार्य माणिक्यनन्दी ने प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहा है- 'स्व' अर्थात् अपने आप को और 'अपूर्वार्थ' अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से जाना नहीं है, ऐसे पदार्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।' जैन वाङ्मय में आचार्य माणिक्यनन्दी से पूर्व आगमिक परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द (२ शती), उमास्वाति (३-४ शती) और यतिवृषभ आदि ने ज्ञान को ही प्रमाण के रूप में निरूपित किया है। आगमिक परम्परा के पश्चात् जैन दार्शनिक परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र (५-६वीं शती) ने आप्तमीमांसा में युगपत् सर्व के अवभासन रूप तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहकर स्याद्वाद नय से संस्कारित क्रमभावि ज्ञान को भी प्रमाण कहा है। अकलंकदेव (६८० ई०) ने कहीं अर्थ को ग्रहण करने वाले व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा। और कहीं अनधिगतार्थक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहा। आचार्य सिद्धसेन (५-६वीं शती) ने बाधारहित स्वपरावभासी ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य विद्यानन्द (८५० ई०) ने तत्त्वज्ञान को स्वार्थव्यवसायात्मक कहा है१२ तथा इसे अविसंवादी ज्ञान कहा है। अभिनवभूषण ने सम्यक् ज्ञान को प्रमाण कहा है।५ प्रमाण का स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं तत्त्वज्ञान लक्षण वैदिक दर्शन ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते, किन्तु जिन कारणों से ज्ञान पैदा होता है उन कारणों को प्रमाण मानते हैं और ज्ञान को प्रमाण का फल मानते हैं। न्यायदर्शन के भाष्यकार वात्स्यायन ने 'उपलब्धि के साधनों को प्रमाण कहा है।१६ इसकी व्याख्या करने वालों में मतभेद है। सांख्य इन्द्रियों की विषयाकार परिणति रूप वृत्ति को प्रमाण मानते हैं।७ भाट्ट प्रभाकर१८ ज्ञातृ-व्यापार को प्रमाण मानते हैं। बौद्ध यद्यपि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं किन्तु वे निर्विकल्प ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। इन सब विरोधी स्वरूपों का तविषयक समन्वय जैनदर्शन में हुआ है। सम्भवत: इन्हीं मतों को ध्यान में रखकर आचार्य विद्यानन्द ने अपने पूर्वाचार्यों के लक्षण को दृष्टि में रखकर प्रमाण का यह लक्षण स्थिर किया- 'अपना और पदार्थ का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। यहाँ पर जो स्वार्थव्यवसायात्मक रूप तत्त्वज्ञान को प्रमाण का लक्षण कहा गया है, उसमें ज्ञान को प्रमाण कहा जाना आगमिक परम्परा का अनुसरण है और ज्ञान के साथ 'तत्त्व' शब्द का प्रयोग आचार्य समन्तभद्र से आया प्रतीत होता है क्योंकि युक्त्यनुशासनालंकार

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