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५४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११
अन्य ज्ञान से उसे ग्राहक मानने वाले नैयायिकों के कारकसाकल्य व वैशेषिकों के सन्निकर्षवाद का खण्डन करके प्रत्येक पद स्वतः सक्षम सिद्ध होता है।
जैन दार्शनिकों में भी धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य को लेकर दो विचारधारा पायी जाती है। एक विचारधारा के अनुसार अपूर्व अर्थ का ग्राही प्रमाण है, अतः धारावाहिक ज्ञान प्रमाण नहीं है किन्तु अपूर्व से सर्वथा अपूर्व न लेकर कथंचित् अपूर्व लेना चाहिए। इनकी मान्यता है कि प्रथम ज्ञान से जाने हुए पदार्थ में प्रवृत्त हुआ, उत्तर ज्ञान यदि उससे कुछ विशेष जानता है तो वह प्रमाण ही है । २९
दूसरी विचारधारा के अनुसार 'स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान' प्रमाण है। इसी लक्षण में ही सभी तथ्य समाविष्ट हो जाते हैं। अतः इसमें 'अपूर्व' विशेषण लगाना व्यर्थ है । धारावाहिक ज्ञान गृहीतग्राही हो अथवा अगृहीतग्राही हो । यदि वह 'स्वार्थ' का निश्चायक है तो प्रमाण है। यदि गृहीतग्राही होने से स्मृति प्रमाण नहीं है, तो धारावाहिक ज्ञान भी प्रमाण नहीं हो सकता है। २२
जैनदर्शन में पहली विचारधारा के प्रवर्तक अकलङ्कदेव ही प्रतीत होते हैं। यह विचारधारा बौद्धदर्शन से जैनदर्शन में प्रविष्ट हुई जान पड़ती है। अकलङ्कदेव की यह शैली रही है कि उन्होंने अन्य दर्शनों की समीक्षा करके अनेकान्त का पुट देकर उन्हें अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया। अतः उन्होंने बौद्ध दर्शन के अनधिगतार्थाधिक लक्षण से एकान्तवाद को हटाकर उसमें अनेकान्तवाद को घटित किया है। अन्यथा अकलङ्कदेव भी अपूर्वार्थग्राही ज्ञान को प्रमाण मानने के पक्षधर नहीं हैं क्योंकि तत्त्वार्थवार्तिक में उन्होंने खण्डन करते हुए लिखा है- 'प्रमाण का लक्षण अपूर्वार्थाधिगम सम्यक् नहीं है क्योंकि जैसे अन्धकार में रखे हुए पदार्थों को दीपक तत्काल ही प्रकाशित कर देता है, फिर भी बाद में उसे ही प्रकाश कहा जाता है, क्योंकि उस दीपक से ही उन पदार्थों की उपस्थिति का बोध होता है। इसी तरह ज्ञान भी उत्पन्न होते ही घटादि पदार्थों का अवभासक होकर प्रमाण से प्राप्त होकर भी 'प्रमाण' इस नाम को नहीं छोड़ता है। अत: वह अपूर्व - अपूर्व अर्थ का ही प्रकाशक है, तो ज्ञान भी दीपक की तरह प्रतिक्षण बदलता रहता है, अर्थात् अपूर्वाधिगम लक्षण उसमें भी उपलब्ध रहता है। यह कहना खण्डित हो जाता है कि स्मृति की तरह पहले जाने हुए पदार्थ को पुनः-पुनः जानने वाला ज्ञान अप्रमाण है । २३
प्रमाण के लक्षण में माणिक्यनन्दी का 'अपूर्व' पद जैन आगम - साहित्य में एक विलक्षण कदम प्रतीत हुआ लगता है। जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि अकलङ्कदेव भी प्रमाण के इस लक्षण 'अपूर्व' से परिचित थे किन्तु अपूर्व पद