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५६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ में उत्तरवर्ती को वर्तमानवत् व पूर्ववर्ती वर्तमान को भूतकाल रूप में जान रहा है। अत: वह ज्ञान गृहीतग्राही नहीं है। वस्तु के परिणमन भेद से ज्ञान में भी प्रमेय भेद हो गया है। इसी कारण केवलज्ञान गृहीतग्राही नहीं है। वस्तु में सामान्य-विशेषात्मक अनेक धर्म होते हैं, उनमें किसी गुण या धर्म का किसी प्रमाण के निश्चय होने पर भी दूसरे गुण या उसकी दूसरी पर्याय की अपेक्षा वह वस्तु दूसरे प्रमाण के लिए अपूर्वार्थ हो जाती है। परीक्षामुख के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ‘दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक्' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं 'अनधिगत अर्थ को ही जानना प्रमाण का लक्षण नहीं है, क्योंकि वस्तु अधिगत हो या अनधिगत हो, यदि वह उसको निर्दोषरूप से जानता है तो वह दोषी नहीं है। शायद कोई पूछे कि जाने हुए अर्थ में ज्ञान क्या करता है तो उसे प्रमाण माना जाये? इसका उत्तर है कि विशिष्ट ज्ञान का जनक होने से उसे प्रमाण माना जाता है। जहाँ वह विशिष्ट जानकारी नहीं कराता है, वहाँ वह अप्रमाण है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्यमाणिक्यनन्दी ने प्रमाण के लक्षण के रूप में 'अपूर्व' पद का समावेश कर जैन न्याय को एक नवीन दिशा प्रदान की। सम्भवतः प्रत्यक्ष के लक्षण में 'अपूर्व' पद को जोड़कर आचार्य श्री ने जैनदर्शन में प्रतिपादित प्रमाण को अन्य भारतीय दर्शनों में प्रतिपादित प्रमाण के तुल्य स्थापित करने का एक नूतन प्रयास किया है। सन्दर्भ
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः। धर्माधर्मी त्रय्याम्। अर्थानों वार्तायाम। नयानयौ दण्डनीत्याम्। बलाबले चेतासां हेतुभिरन्विक्षमाणा आन्वीक्षिकी लोकस्योपकरोति, व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति, प्रज्ञावाक्यक्रियावैशारा च करोति। प्रतीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता। - १-२, अर्थशास्त्र, कौटिल्य, सम्पा० आचार्य श्री विश्वनाथ शास्त्री (प्रथमभागस्य प्रथमं सम्पुटम्), सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, १९९१, पृ० १५७, आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति च तस्रो राजविद्याः। अधीयनोहान्वीक्षिकी कार्याकार्याणां बलाबलं हेतुभिर्विचारयति व्यसनेषु न विषीदयति नाभ्युदयेन विकार्यते समधिगच्छति प्रज्ञावाक्यवैशारद्यम्।- ५६-५७, नीतिवाक्यामृतम्, श्री सोमदेव, पंचम् समुद्देशः, श्री दिगम्बर जैन विद्याग्रन्थ प्रकाशन समीति, जयपुर,