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परीक्षामुख में प्रमाण- लक्षण निरूपण : एक अध्ययन
डॉ० नवीन कुमार श्रीवास्तव
वस्तु तत्त्व की सिद्धि बिना प्रमाण के सम्भव नहीं है। इस विषय पर भारतीय दर्शनों में बहुत गम्भीर चिन्तन किया गया है। न्यायदर्शन और बौद्धदर्शन का प्रमाण चिन्तन बड़ा व्यापक है। जैनदर्शन का प्रमाण- - चिन्तन उनसे भी गम्भीर है जिस ओर लोगों का ध्यान कम गया है। बौद्धों की तरह ही जैनदर्शन में ज्ञान को प्रमाण माना है, इन्द्रिय, इन्द्रिय- सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति आदि को नहीं। इसी तरह प्रमाण - लक्षण में 'अपूर्व' पद को लेकर, गृहीतग्राही ज्ञान, स्मृति आदि को लेकर भी जैनों की अभिनव दृष्टि है।
सम्पादक
न्यायशास्त्र को तर्कशास्त्र, हेतुविद्या और प्रमाणशास्त्र भी कहते हैं, किन्तु इसका प्राचीन नाम 'आन्वीक्षिकी' है। कौटिल्य (३२७ ई० पू० ) ने अपने अर्थशास्त्र' में आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति- इन चार विद्याओं का निर्देश किया है और कहा है कि त्रयी में धर्म-अधर्म, वार्त्ता में अर्थ - अनर्थ तथा दण्डनीति में नय - अनय का कथन होता है और हेतु द्वारा इनके बलाबल का अन्वीक्षण करने से लोगों का उपचार होता है, संकट और आनन्द में यह बुद्धि को स्थिर रखती है, प्रज्ञा, वचन और कर्म को निपुण बनाती है। यह आन्वीक्षिकी की विद्या सर्व विद्याओं का प्रदीप, सब धर्मों का आधार है।
कौटिल्य का अनुसरण करते हुए जैनाचार्य सोमदेव (९५९ ई०) का अभिमत है' कि आन्वीक्षिकी विद्या का पाठक हेतुओं द्वारा कार्यों के बलाबल का विचार करता है कि संकट में खेद भिन्न नहीं होता, अभ्युदय में मदोन्मत्त नहीं होता और बुद्धिकौशल तथा वाक्-कौशल को प्राप्त करता है । किन्तु मनुस्मृति में आन्वीक्षिकी को आत्मविद्या कहा है और सोमदेव ने भी आन्वीक्षिकी को अध्यात्म-विषय में प्रायोजनीय बताया है।
नैयायिक वात्स्यायन (४५० ई०) ने अपने 'न्यायभाष्य' के आरम्भ में लिखा है कि ये चारो विद्याएँ प्राणियों के उपकार के लिए कही गई हैं। जिनमें से चतुर्थी यह आन्वीक्षिकी विद्या है। उसके पृथक् प्रस्थान, संशय आदि पदार्थ हैं। यदि उन संशय आदि का कथन न किया जाए तो केवल अध्यात्मविद्या मात्र हो जाए, जैसे कि उपनिषद् ।