Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 55
________________ १८. ४८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ २००६, पृ० ७५, १३. जैनदर्शन में सामान्य तिर्यक् एवं ऊर्ध्वता भेद से द्विविध है तथा विशेष भी पर्याय एवं व्यतिरेक भेद से द्विविध हैं, जिसकी चर्चा आगे प्रस्तावित है। प्रो० उदयचन्द जैन, प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन, प्राच्य श्रमण भारती, मुजफ्फरनगर, १९९८, पृ० १५५, येनोत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्तं यत्तत्सदिष्यते। अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः।। - का० ५७, षड्दर्शनसमुच्चय, पूर्वोक्त, पृ० ३४७, घटमौलीसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम्।। - ७/२, शास्त्रवार्तासमुच्चय, आचार्य हरिभद्र, दिव्यदर्शन ट्रस्ट मुम्बई, पयोव्रतो न दध्यति, न पयोऽति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम्।। - ७/३, शास्त्रवार्तासमुच्चय, पूर्वोक्त, यहाँ आचार्य माणिक्यनन्दी ने परीक्षामुख के सूत्र ४/२ में स्थितिलक्षण परिणाम में 'लक्षण' शब्द का प्रयोग भी वस्तु की सामान्य-विशेषात्मकता को दर्शाने के लिए किया है। द्रष्टव्य है कि मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु (चिह्न) को लक्षण कहते हैं, जैसा कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक में कहा है- “परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा व्यावृत्त (अलग) की जाती है उसे लक्षण कहते हैं।" यह दो प्रकार का होता है- आत्मभूत और अनात्मभूत। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं और जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो (उससे पृथक् हो) उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड (दण्डी पुरुष का दण्ड) अनात्मभूत लक्षण है। अग्नि की उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई अग्नि को जलादि पदार्थों से अलग करती है। इसीलिए उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। 'दण्डी को लाओ ऐसा कहने पर दण्ड पुरुष में न मिलता हुआ भी पुरुष को पुरुषभिन्न पदार्थों से पृथक् करता है। इसीलिए दण्ड दण्डी पुरुष का अनात्मभूत लक्षण है। १९. सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्खताभेदात्।। - ४/३, परीक्षामुख, पूर्वोक्त, २०. सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत्।। - ४/४, वही, २१. परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वतासामान्य मृदिव स्थासादिषु। - ४/५, वही,

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