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४० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११
सामान्य-विशेषात्मक हो। १४ पूर्व आकार के परिहार को व्यय कहते हैं और उत्तर आकार की प्राप्ति को उत्पाद कहते हैं, ये दोनों अवस्थायें विशेष रूप हैं। उत्पाद और व्यय के साथ वस्तु की जो स्थिति है, उसे ध्रौव्य कहते हैं और वह सामान्यरूप है। अर्थात् इन दोनों अवस्थाओं में रहने वाला ध्रौव्य रूप द्रव्यसमान्य रूप है । इस दूसरे हेतु के द्वारा ऊर्ध्वता सामान्य व पर्यायविशेष सहित धर्मवाली (सामान्य-विशेषात्मक) वस्तु की सिद्धि होती है। यहाँ पर वस्तु की सामान्य विशेषात्मकता को उसकी त्रयात्मकता के आधार पर सिद्ध किया गया है। जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त होगी, वही सत् होगी तथा वही अनन्तधर्मक वस्तुज्ञान का विषय (प्रमेय) है । १५ आचार्य हरिभद्र शास्त्रवार्तासमुच्चय में लिखते हैं, “जब सोने के घड़े को नष्ट करके मुकुट बनाया जाता है तब सोना पूर्ववत् स्थिति में बना रहता है और ऐसी अवस्था में यह एक सकारण बात है कि जिस व्यक्ति को सोने के घड़े की आवश्यकता हो वह शोक में पड़ जाय, जिसे मुकुट की आवश्यकता हो वह प्रसन्न हो जाय तथा जिसे सोने की आवश्यकता हो वह अपने मन:स्थिति को पूर्ववत् बनाये रखे। १६ आशय यह है कि जब एक ही घटना को 'घड़े का नाश', 'मुकुट की उत्पत्ति' और 'सोने का ज्यों का त्यों बने रहना' इन तीनों रूपों में देखा जा सकता है तब यही मानना चाहिये कि जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, नाश तथा स्थिरता इन तीनों रूपों वाली है। इसी प्रकार जिसने दूध पर रहने का व्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही पर रहने का व्रत लिया है वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस न लेने का व्रत लिया है वह न तो दूध पीता है और न ही दही खाता है। १७ इससे सिद्ध होता है कि एक वस्तु का तात्त्विक स्वरूप तीन प्रकार का है। उसमें प्रतिसमय पूर्वाकार का त्याग, उत्तराकार का ग्रहण एवं उन दोनों आकारों में स्थितिरूप परिणाम के द्वारा अर्थक्रिया होती ही रहती है। उदाहरणार्थ जब सोने का घड़ा तोड़कर मुकुट बनाया जाता है तो कहा जाता है कि यहाँ सोना द्रव्य में घड़ा पर्याय का त्याग (नाश) होकर मुकुट पर्याय का ग्रहण (उत्पत्ति) हो गया। इसी तरह जब दूध जमकर दही बन जाता है तो कहा जाता है कि यहाँ गोरस द्रव्य में दूध पर्याय का त्याग (नाश) होकर दही पर्याय का ग्रहण (उत्पत्ति) हो गया। इन उदाहरणों में पूर्वाकार - परिहार एवं उत्तराकार - अवाप्ति वस्तु की विशेषता को दर्शाते हैं, यथाघड़ा, मुकुट, दूध, दही इत्यादि विशेष वस्तुएँ। इसी तरह स्थिति - लक्षण" परिणाम (द्रव्यत्व) उसके सामान्य स्वरूप का दिग्दर्शन कराता है, यथा- सोना द्रव्य, गोरस द्रव्य इत्यादि। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सभी पदार्थ सामान्य विशेषात्मक हैं। यहाँ पर सामान्य एवं विशेष के भेद - प्रभेद का स्पष्टीकरण कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। अत: उनकी संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।