Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 50
________________ जैन दर्शन में प्रमेय का स्वरूप एवं उसकी सिद्धि : ४३ वाला है और गृहीतग्राही विकल्प (ज्ञान) का प्रामाण्य प्राप्त नहीं होता है। यदि गृहीतग्राही ज्ञान को प्रमाण माना जाय तो गृहीतग्राहित्व की अनुपपत्ति होती है । १ जैनदर्शन की मान्यता है कि सर्वत्र अर्थ की व्यवस्था प्रत्यय के द्वारा ही होती है और विलक्षण काली-पीली गायों में भी 'गौ गौ' इस प्रकार का अनुगत प्रत्यय पाया जाता है। अतः अनुगत प्रतिभास के होने से वस्तु भी अनुगत धर्म से युक्त है, ऐसा मानना चाहिए। यदि इसका विषय व्यावृत्ति होता तो 'गौ गौ' इस प्रकार की विधि की प्रधानता से प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए थी। जिस प्रकार विजातीय से व्यावृत्ति वस्तु का स्वरूप है उसी प्रकार सजातीय से व्यावृत्ति भी वस्तु का स्वरूप है। अत: दर्शन (निर्विकल्पकज्ञान) के पश्चात् होने वाले विकल्प में यदि विजातीय व्यावृत्ति रूप आकार का उल्लेख होता है तो सजातीय व्यावृत्ति रूप आकार का भी उल्लेख होना चाहिए क्योंकि सजातीय व्यावृत्ति और विजातीय व्यावृत्ति में तथा स्वलक्षण में कोई भेद नहीं है। बौद्ध दार्शनिक असमानाकार व्यावृत्ति के द्वारा समानाकार रूप सजातीयता की कल्पना करते हैं तो जो स्वयं असमानाकार है उसमें समानता की कल्पना करते हैं या जो स्वयं समानाकार है उसमें समानता की कल्पना करते हैं? जो स्वयं असमानाकार है उसमें अन्य से व्यावृत्त होने पर भी समानाकारता मानना व्यर्थ है। यदि ऐसा माना जाता है तो भैंस वगैरह से व्यावृत्त होने से गाय और अश्व में भी समानता का प्रसंग आता है। जिस प्रकार मूर्त घट से ज्ञान व्यावृत्त ( भिन्न) है उसी प्रकार पट भी व्यावृत्त है । अत: ज्ञान और पट में मूर्तिकपना समान धर्म हो जाएगा तथा अन्योन्याश्रय दोष भी आता है। अर्थात् अन्य से व्यावृत्त होने पर समानाकारता होती है और समानाकारता के होने पर अन्य से व्यावृत्ति होती है अतः जो स्वयं समानाकार है उसमें अन्य से व्यावृत्ति के द्वारा समानाकार की कल्पना करना व्यर्थ है। यदि (बौद्ध) मान्यतानुसार यह कहा नाय कि जो निर्विकल्पकानुभव है वह विजातीय भेद-ग्रहण-प्रसंग से अभ्रान्त है और सजातीय भेद - ग्रहण - प्रसंग से पुनः भ्रान्तरूप है। अत: उसका सजातीय भेद-ग्राहक जो विकल्प है वह असम्भव है तो यह कथन भी योग्य नहीं है क्योंकि एक ही वस्तु भ्रान्तरूप एवं अभ्रान्तरूप हो तो 'कल्पना रहित अभ्रान्त' ऐसा जो प्रत्यक्ष का लक्षण (बौद्धों का) है उसमें अभ्रान्त विशेषण निरुपयोगी हो जाएगा। बौद्धों द्वारा इस स्थल पर यह तर्क दिया जा सकता है कि यह निर्विकल्पकानुभव विजातीय भेद ग्रहण करने में समर्थ है और सजातीय भेद ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। समर्थ अनुभव से हुए संस्कार के उद्रेक के बलवान होने से वह केवल विजातीय भेद-ग्राहक विकल्प को ही उत्पन्न कर सकता है, सजातीय भेद - ग्राहक विकल्प को नहीं। परन्तु यहाँ उनके (बौद्धों ) कथन के प्रति यह संशय उत्पन्न होगा कि यह (निर्विकल्प) अनुभव जिस स्वभाव से विजातीय भेद को ग्रहण

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