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४२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ तरह।२६ अर्थात् अनेक पदार्थों में पाये जाने वाले परस्पर वैसादृश्य को व्यतिरेक विशेष कहते हैं। जैसे- अनेक पशुओं में गाय, भैंस आदि। एक अर्थ (पदार्थ) से सजातीय तथा विजातीय अर्थ-अर्थान्तर कहलाता है। एक गाय से दूसरी गाय अर्थान्तर है और एक भैंस से दूसरी भैंस अर्थान्तर है, यह सजातीय अर्थान्तर है। इसी प्रकार गाय से भैंस, अश्व आदि अर्थान्तर हैं, यह विजातीय अर्थान्तर है। इसी विशेष के कारण हम एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को पृथक् करते हैं। इस प्रकार पदार्थ सामान्य-विशेष रूप है और वही प्रमेय है, प्रमाण का विषय न केवल सामान्य है और न केवल विशेष। ये दोनों पृथक् रहकर भी विषय नहीं बन सकते, ये परस्पर में अपृथभूत हैं। इनमें तादात्म्य सम्बन्ध है। इस तरह सामान्यविशेषात्मक अर्थ ही प्रमाण का विषय होता है तथा उसे ही प्रमेय कहा जाता है। प्रमेय के सामान्य-विशेषात्मकत्व की सिद्धि आचार्य माणिक्यनन्दी कहते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय (प्रमेय) होता है।२७ आचार्य हरिभद्र का भी अभिमत है कि वस्तु सामान्य-विशेषरूप है और यह अनुभव से सिद्ध है। उदाहरणार्थ- घटादि के बारे में 'घट घट है' ऐसी सामान्याकार बुद्धि उत्पन्न होती है तथा 'मिट्टी का, ताँबे का, रजत का है' ऐसी विशेषाकार बुद्धि भी होती है और ‘(घट) पटादि रूप नहीं होता है' ऐसी व्यतिरेक बुद्धि भी होती है।२८ उनका मानना है कि पदार्थ का सद्भाव उसके ज्ञान के सद्भाव से निश्चित होता है और वह ज्ञान सामान्य-विशेषाकार ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार के अनुभव से ही सिद्ध होता है कि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। 'यह अनुभव भ्रान्तिमात्र है' (बौद्धों का यह आक्षेप) भी घटित नहीं होता है क्योंकि घटादि के समीप होने पर भी समर्थ घट से अन्य कारण जिसके पास है ऐसे सभी प्रमाताओं को समानरूप से यह अनुभव होता है।२९ यहाँ यह शंका हो सकती है कि 'घट घट है' ऐसा जो विकल्प (सामान्याकार बुद्धि) होता है वह तद्रूपपरावृत्त वस्तुजन्य है और संकेतकृतवासना से उत्थापित होने पर भी वस्तुस्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकता तथा जो वस्तुग्राही विकल्प है वह तो सजातीय एवं असजातीय से व्यावृत्त वस्तु स्वलक्षण-विषय (सविकल्प) होने से सामान्य-विशेषाकार नहीं है। इस प्रकार 'अनुभव से ही सिद्ध है' जो कहा गया है वह
अयुक्त है।३०
इस शंका के समाधानार्थ आचार्य हरिभद्र का कथन है कि उपरोक्त कथन (आक्षेप) युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि तात्त्विक दृष्टि से निर्विकल्पकानुभव भी सामान्य-विशेषाकार