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३८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ रूप में परिभाषित करना अतिव्याप्ति परिभाषा का दोष है क्योंकि प्रमा के कारण तो 'प्रमाता' और 'प्रमेय' भी होते हैं, किन्तु प्रमाण प्रमाता और प्रमेय से भिन्न है। अतः प्रमाण को प्रमा का करण ही समझा जाना चाहिए क्योंकि प्रमा के निमित्त कारण के रूप में प्रमाण ही उपस्थित होता है।"२ जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान को ही प्रभाण माना गया है। आचार्य माणिक्यनन्दी ने स्व-अपूर्व-अर्थ-व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है। अर्थात् जो स्व और अपूर्व पदार्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान है वह प्रमाण है। प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं, अर्थात् प्रमाण के द्वारा जिसकी सिद्धि हो या जिसको माना जाय वह प्रमेय है। वह प्रमेय क्या है, उसका स्वरूप कैसा है एवं उसका वह स्वरूप सिद्ध है अथवा नहीं? ये बिन्दु ही इस आलेख के विवेच्य हैं। इस विवेचन-क्रम में प्रमेय का स्वरूप एवं प्रमेय की सिद्धि का प्रमुख आधार जैनशास्त्र के दो प्रमुख ग्रन्थ आचार्य हरिभद्र (विक्रम ७५७ से ८२७) विरचित 'अनेकान्तवादप्रवेश' एवं माणिक्यनन्दी (९५० से १०२८ ई०) विरचित 'परीक्षामुख' हैं यथावसर अन्य जैन एवं जैनेतर ग्रन्थों का भी उपयोग किया गया है। प्रमेय का स्वरूप आचार्य माणिक्यनन्दी परीक्षामुख में लिखते हैं कि प्रमाण से अर्थ की सिद्धि होती है।५ तात्पर्य यह है कि प्रमाण का प्रयोजन है अर्थ (पदार्थ) की सिद्धि करना। न्यायदर्शन में भी बतलाया गया है कि प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहलाता है। आचार्य हरिभद्र ने षडदर्शनसमुच्चय में कहा है कि अनन्तधर्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय होती है। आचार्य हेमचन्द्र ने द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु को प्रमाण का विषय माना है। आचार्य माणिक्यनन्दी ने भी सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ को प्रमाण का विषय माना है।' तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन में प्रमाण का विषय अनन्तधर्मक वस्तु को माना गया है जो द्रव्य-पर्यायात्मक या सामान्य-विशेषात्मक है। जैनदर्शन में द्रव्य सामान्य का एवं पर्याय विशेष का द्योतक माना गया है, जिसका विवेचन आगे किया जाएगा। यहाँ ध्यातव्य है कि जैनदर्शन में पदार्थ को न केवल सामान्यरूप माना गया है, न केवल विशेषरूप माना गया है और न ही स्वतन्त्र उभयरूप; अपितु उभयात्मक (सामान्य-विशेषात्मक) माना गया है। यह सामान्यविशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय होता है क्योंकि वही अर्थक्रिया में समर्थ है।१० केवल सामान्यरूप या केवल विशेषरूप अर्थ (पदार्थ) अर्थ क्रिया में समर्थ नहीं हो सकता अर्थात् ऐसे पदार्थ की सत्ता ही सिद्ध नहीं होती है। प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है क्योंकि वह अनुवृत्त और व्यावृत्त प्रत्यय का विषय है तथा पूर्व आकार का परिहार, उत्तर आकार की अवाप्ति एवं स्थिति-लक्षण