Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ जैन दर्शन में प्रमेय का स्वरूप एवं उसकी सिद्धि : ३९ परिणाम द्वारा अर्थक्रिया की उपपत्ति (सद्भाव) होती है।११ पदार्थ को सामान्यविशेषात्मक होने में यहाँ दो हेत दिये गए हैं। प्रथम हेतु है कि वह (पदार्थ) अनुवृत्त एवं व्यावृत्त प्रत्यय का विषय होता है। द्वितीय तर्क है कि उसमें प्रतिसमय पूर्वाकार का त्याग एवं उत्तराकार का ग्रहण होते हुए भी स्थितिरूप अर्थक्रिया देखी जाती है। 'यह गाय है, यह भी गाय है' अथवा 'यह वही है, यह भी वही है'- इस प्रकार की सदृश आकार वाली प्रतीति (ज्ञान) को अनुवृत्त प्रत्यय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सब गायों में 'गौ गौ' (गोत्व) इत्यादि रूप से जो प्रत्यय होता है वह अनुवृत्त प्रत्यय है। इसका विषय सामान्य है। 'यह गाय काली है, यह चितकबरी है' अथवा 'यह वह नहीं है, यह भी वह नहीं है'- इत्यादि प्रकार के ज्ञान (विशेष आकार वाली प्रतीति) को व्यावृत्त प्रत्यय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सब गायों में परस्पर भेद कराने वाला जो प्रत्यय है वह व्यावृत्त प्रत्यय कहलाता है। इन दोनों प्रकार के प्रत्ययों का विषय (गोचर) होना, उसके भाव को 'अनुवृत्त-व्यावृत्त-प्रत्ययगोचरत्व' कहते हैं। इस प्रकार बाह्य तथा आध्यात्मिक जितने भी प्रमेय हैं वे सब एक साथ ही अनुवृत्त तथा व्यावृत्त प्रत्यय के विषय होते हैं। इस तथ्य का स्पष्टीकरण डॉ० वीरसागर जैन इस प्रकार करते हैं, “एक टोकरी में अनेक प्रकार के फल रखे हैं। उनमें हमें एक साथ दोनों प्रकार का ज्ञान होता है। यह भी फल है, यह भी फल है, यह भी फल है'- इत्यादि प्रकार का अनुवृत्त ज्ञान भी होता है और 'यह आम है, यह अनार है, यह केला है, यह पपीता है, यह चीकू है'- इत्यादि प्रकार का व्यावृत्त ज्ञान भी होता है।" इसका और स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं, “मान लीजिए उस टोकरी में केवल एक ही प्रकार के फल हैं- आम। तथापि हमें उनमें भी दोनों प्रकार का ज्ञान अवश्य होता है। 'यह भी आम है, यह भी आम है, यह भी आम है'- इत्यादि प्रकार का अनुवृत्त प्रत्यय भी होता है और 'यह दशहरी है, यह लँगड़ा है, यह तोतापारी है, यह बादामी हैं'- इत्यादि प्रकार व्यावृत्त प्रत्यय (ज्ञान) भी होता है।" इस हेतु के द्वारा तिर्यक् सामान्य व व्यतिरेक विशेष१३ सहित धर्मवाली (सामान्य-विशेषात्मक) वस्तु की सिद्धि होती है। पदार्थ की सामान्य-विशेषात्मकता को दर्शाने के लिए जैन दर्शन में दूसरा हेतु यह दिया गया है कि उसमें (प्रत्येक पदार्थ में) प्रतिसमय पूर्वाकार का त्याग, उत्तराकार का ग्रहण और फिर भी स्थितिरूप अर्थक्रिया देखी जाती है। जल-धारण आदि घट की अर्थक्रिया है, शीत-निवारण आदि पट की अर्थक्रिया है। इस प्रकार सब पदार्थों के द्वारा अर्थक्रिया की जाती है जिसका तात्पर्य है अर्थ का अपना कार्य। प्रत्येक पदार्थ अपना कार्य करता है किन्तु प्रत्येक पदार्थ में अर्थक्रिया तभी हो सकती है जब वह

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